रघुवीर सहाय की ‘अधिकार हमारा है’ एक नागरिक के देश से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह ठीक है लेकिन यह मुझे अपना मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह इसके ‘प्रधानमंत्री’ पद पर मेरा हक़ कबूल करता है या नहीं. मैं मात्र मतदाता हूं या इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं?
‘इस जीवन में
मैं प्रधानमंत्री नहीं हुआ
इस जीवन में मैं प्रधानमंत्री के पद का
उम्मीदवार भी शायद हरगिज़ नहीं बनूं
पर होने का अधिकार हमारा है’
मर कर बेमौत जनम लेकर
भारत के कोई कोने में
खोजता रहूंगा वह औरत
काली नाटी सुंदर प्यारी
जो होगी मेरी महतारी’ काली, नाटी और महतारी शब्दों से ही उस ‘मैं’ और ‘हम’ की पहचान जाहिर है. कविता यहां पाठक को भी कुछ सोचने और खोजने के लिए जगह छोड़ देती है या एक पेंच बना देती है. आगे वह ‘मैं’ कहता है, ‘मैं होऊं मेरी मां होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का प्रधानमंत्री
होने का अधिकार हमारा है.’ यह मैं क्या दलित ‘मैं’ है या आदिवासी ‘मैं’? कविता का साल देखें तो कह सकते हैं कि बीसवीं सदी के नवें दशक की शुरुआत में इस ‘मैं’ में ‘पिछड़े’ या अन्य पिछड़े समुदाय के ‘मैं’ भी शामिल हैं. कविता ने अपना भूगोल स्थिर कर दिया है यह लिखकर कि ‘भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है’ लेकिन मुझे यह कविता अमेरिका के संदर्भ में याद आई पहली बार बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने पर. अमेरिका और पूरी दुनिया के काले लोगों की नम आंखों को देखकर. शब्द बदलकर यह कविता अमेरिका के काले लोगों की तरफ से कह सकती थी, अमेरिका का भावी प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है’ में से भावी हटा दीजिए. वह भावी अब वर्तमान है. 2019 में जब एक काली-एशियाई औरत अमेरिका की उपराष्ट्रपति पद की शपथ ले रही थी तो इस ‘मैं’ की शक्ल थोड़ी बदली थी. लेकिन रघुवीर सहाय की कविता ने इस मौके का भी अनुमान किया था, “मैं होऊं मेरी मां होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का प्रधानमंत्री
होने का अधिकार हमारा है.’ एक मां, वह काली, प्यारी महतारी उपराष्ट्रपति हो सकती थी. नहीं, हो चुकी थी. तब वह राष्ट्रपति भी तो हो सकती है. वह अधिकार उसका है. यही कहा कमला हैरिस ने, कि यह जो अमेरिकी जनतंत्र में पहली बार हुआ, वह अंतिम बार होकर नहीं रह जाएगा. कविता एक नागरिक के देश या राष्ट्र से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह तो ठीक लेकिन यह देश मुझे अपना देश मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह भारत के ‘प्रधानमंत्री’ पद पर मेरा दावा, मेरा अधिकार कबूल करता है या नहीं. क्या मैं मात्र मतदाता हूं या मैं इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं? अमेरिका में बराक ओबामा के चुनाव लड़ते समय यह कविता याद आई क्योंकि बार-बार कहा जा रहा था कि ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति पद का सपना देख ही कैसे सकते थे. वे ठहरे काले व्यक्ति, अफ्रीकी मूल के और उनमें मुसलमान अंश भी है. फिर अमेरिका, जिसका रंग गोरा है, ओबामा को यह पद दे ही कैसे सकता है? यही बात तब कही गई जब कमला हैरिस ने उपराष्ट्रपति पद पर दावा पेश किया. कमला हैरिस की यह हिमाकत कि भारतीय-जमैकन मूल की होकर वे गोरे अमेरिका के नेतृत्व का सपना देखें! लेकिन कमला ने कहा, यह अधिकार हमारा है. और वह अधिकार लिया. और अमेरिका की मतदाता जनता ने इस दावे को स्वीकार किया. बराक ओबामा और कमला हैरिस के दावे को स्वीकार करके उनकी तरह के ‘मैं’ और अमेरिका के रिश्ते को पक्का किया गया. इंग्लैंड में प्रीति पटेल, भारतीय मूल की हिंदू गुजराती पृष्ठभूमि के होते हुए कह सकती हैं, ‘इंग्लैंड की भावी प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है.’ या उन्हें इस पर ज़ोर देने की ज़रूरत ही क्यों हो? वे उस देश की गृहमंत्री हैं. भारतीय मूल के ऋषि सुनाक इंग्लैंड के वित्त मंत्री हैं. कनाडा का एक सिख कह सकता है कि प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है. कविता लेकिन भारत में लिखी गई है. कवि के मन में शायद उसी का मुल्क रहा हो. उसी के देश भारत के ‘कोई कोने में बेमौत जनम लेकर’ अपनी उस काली, नाटी, सुंदर प्यारी मां को खोजते हुए शख्स की तस्वीर उनके मन में होगी जिसे कहना पड़ रहा है कि भारत के भावी प्रधानमंत्री बनने का उसका अधिकार है. तो भारत में जितने ‘मैं’ हैं, उनमें से कौन-कौन ‘मैं’ अभी भी रघुवीर सहाय के स्वर में स्वर मिलाकर यह दावा आज पेश करेगा? मुझे 2017 में यह कविता याद आई जब गुजरात की विधानसभा के लिए चुनाव हो रहा था. भारतीय जनता पार्टी ने अपने मतदाताओं को डराया, गुजरात की जनता को डराया कि अगर उसे वोट नहीं दिया, अगर कांग्रेस पार्टी को वोट दिया तो अहमद पटेल मुख्यमंत्री बन जाएंगे. मानो अहमद पटेल का अधिकार मुख्यमंत्री बनने का हो ही नहीं सकता. 2017 के बहुत पहले 2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्ववाला गठबंधन चुनकर आया तो हाय-तौबा मच गई, सोनिया गांधी, एक विदेशी मूल की ईसाई औरत का भारत के प्रधानमंत्री पद पर दावा स्वीकार ही कैसे किया जा सकता है? सोनिया गांधी पीछे हट गईं. अपनी दावेदारी उन्होंने पेश ही नहीं की. पीछे वे हटीं कि भारत हटा? 2017 के चार साल बाद असम के विधानसभा चुनाव में फिर भाजपा ने असम की जनता को डराया, अगर हमें वोट नहीं दिया तो बदरुद्दीन अजमल मुख्यमंत्री बन जाएंगे. तो बदरुद्दीन अजमल नाम का व्यक्ति, जो असम का, भारत का, मतदाता है, क्या असम के मुख्यमंत्री पद पर दावा कर ही नहीं सकता? फिर उसका और असम का क्या रिश्ता है? 2021 के भारत में रघुवीर सहाय की इस कविता के ‘मैं’ को पहचानना कठिन नहीं है. आज के भारत में एक उमर खालिद, एक गुलफिशां, एक सिद्दीक कप्पन, एक इशरत जहां की इस दावेदारी को रघुवीर सहाय के स्वर में हम फिर सुनें, ‘मैं होऊं मेरी मां होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का भावी प्रधानमंत्री
होने का अधिकार हमारा है.’ सुनें और कहें, ‘इंशा अल्लाह!’ (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)