नीमका: इक्कीसवीं सदी में उत्तर भारत के गांवों के समाजशास्त्र का एक नमूना

11:14 AM Apr 30, 2023 | द वायर स्टाफ

आंबेडकर गांवों को भारतीय गणतंत्र की ‘इकाई’ मानने से इनकार करते हैं, क्योंकि उनके अनुसार गांव में सिर्फ एक समान ग्रामीण नहीं रहते बल्कि ‘अछूतों’ का ‘छूतों’ से विभाजन साफ दिखाई देता है. ग्रेटर नोएडा में भारत सरकार द्वारा ‘आदर्श गांव’ घोषित नीमका में 18 अप्रैल को आंबेडकर की प्रतिमा तोड़े जाने की घटना के बाद दलित समुदाय पर लगे आरोपों में यही विभाजन स्पष्ट नज़र आता है.

नीमका गांव में आंबेडकर की खंडित मूर्ति को चबूतरे से अलग करते हुए श्रमिक (बाएं), उसी स्थान पर प्रशासन के द्वारा लगवाई गई आंबेडकर की नई प्रतिमा. (फोटो साभार: आतिका सिंह)

उत्तर भारत में जाति उन्मूलन के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले डॉ. बीआर आंबेडकर की मूर्तियों को तोड़े जाने की रवायत आम रही है, लेकिन यदि ऐसी ही कोई घटना राजधानी दिल्ली से सटे किसी गांव में आंबेडकर जयंती के आस-पास हो जाए तो राष्ट्रीय मीडिया के द्वारा इस घटना का संज्ञान लिया जाना स्वाभाविक है. बीते 18 अप्रैल 2023 की रात को ऐसी ही एक घटना गौतम बुद्ध नगर के जेवर ब्लॉक के गांव नीमका में घटित हुई, जहां कुछ अज्ञात व्यक्तियों ने एक आंबेडकर की मूर्ति को क्षतिग्रस्त कर दिया.

चूंकि गांव के जाटव समुदाय ने मात्र चार दिन पूर्व अपने पूजनीय बाबा साहब आंबेडकर का जन्मदिन धूमधाम से बनाया था इसलिए उनकी मूर्ति के साथ छेड़छाड़ दलित समुदाय के लिए क्षोभ का विषय था. रोषपूर्ण वातावरण में किसी भी प्रकार के दंगा-फसाद की स्थिति को बनने से रोकने के लिए पुलिस प्रशासन ने तत्काल भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत धारा 153ए, 295ए और 427 के तहत अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की और क्षत-विक्षत आंबेडकर की मूर्ति को हटाकर ठीक उसी जगह नई मूर्ति को स्थापित करवाई.

जिस गांव नीमका में यह घटना हुई, वह वर्ष 2015 से 2017 तक प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना के तहत एक ‘आदर्श गांव’ रह चुका है. भारतीय गणतंत्र, जहां ‘गांव’ को सभ्यता की मूल इकाई माना गया था वहां इक्कीसवीं सदी में स्वयं भारत सरकार द्वारा ‘आदर्श गांव’ घोषित किए जाने के कारण ग्राम नीमका संभवतः इस बात का एक सटीक नमूना है कि ग्रामीण जीवन में बहुसंख्यक होने के बावजूद दलितों की वास्तविक स्थिति क्या है.

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने पूरे राजनीतिक सफर में अलग-अलग समय पर भारतीय गांवों की महत्ता को तीन प्रकार से रेखांकित करते हैं. अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में जब वे दक्षिण अफ्रीका में कुछ शोषित भारतीयों के संपर्क में आते हैं तो इन भारतीय सह- नागरिकों को ब्रिटिशोंं के समान मताधिकार दिलाने के लिए गांधी भारत की जाति संचालित ग्राम व्यवस्था को पश्चिमी गणतांत्रिक पद्धति के समतुल्य होने का हवाला देते हैं और इस आधार पर मांग करते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को ब्रिटिशोंं के समान वोट देने का अधिकार मिलना चाहिए क्योंकि परंपरागत रूप से प्रवासी भारतीय भी ब्रिटिशों की भांति एक स्वघोषित लोकतांत्रिक समाज से आते है.

लेकिन 1920 के आस पास जब गांधी भारत लौटकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से पूरी तरह जुड़ जाते हैं तो वो भारत के गांवों को एक परंपरागत रूप से पवित्र स्थान के रूप में परिभाषित करना शुरू करते हैं जिनकी पवित्रता और जाति एवं परिवार आधारित एकजुटता उस समय ब्रिटिशों द्वारा चलाए जाने वाले कलकत्ता और बंबई जैसे पश्चिमी संस्कृति पर आधारित शहरों की वजह से गांधी को खतरे में नज़र आती है.

गांधी की भारत के गांवों की समझ को लेकर तीसरा चरण तब शुरू होता है जब वो गांवों पर मंडराते हुए पश्चिमी संस्कृति के खतरे से आगे स्वयं ग्रामवासियों से अपने समाज में सामाजिक सुधार की मांग करना प्रारंभ कर देते हैं. गांधी सिर्फ ऊंची जाति के लोगों से ये गुहार नहीं लगाते हैं कि उनको दलितों का सामाजिक बहिष्कार नहीं करना चाहिए बल्कि वो ये भी कहते हैं कि दलितों को अपने स्वयं के उद्धार के लिए अपने मांस आधारित सामान्य खान-पान का भी त्याग कर देना चाहिए.

आंबेडकर की मूर्ति तोड़े जाने के बाद नीमका गांव के निवासियों से बात करते हुए जब संपन्न जाट समुदाय के लोग दलितों पर ये आरोप लगाते हैं कि अपनी भूमि को खाली करने के लिए और फिर उसको नजदीकी यमुना विकास प्राधिकरण के अंतर्गत संचालित एयरपोर्ट परियोजना में आवंटित करवाकर मुआवजा लेने के लिए दलितों ने स्वयं आंबेडकर की मूर्ति तोड़ दी, तब ऐसा प्रतीत होता है कि इक्कीसवीं सदी में भारत के गांवों को उस समझ से देखा जाना चाहिए जो अंतिम समझ गांधी ने अपने विचारों में भारत के गांवों को लेकर पेश की थी, जिसके अनुसार गांव के ‘अछूत’ हिंदू वर्ण व्यवस्था की खामियों के कारण नहीं बल्कि मुख्यतः अपनी खानपान, चलने-फिरने, ओढ़ने- बिछाने की स्वाभाविक संस्कृति के कारण ‘अछूत’ कहलाने के पात्र हैं.

नीमका गांव में दलितों के भीतर व्याप्त रोष को देखकर ये बात स्पष्ट हो जाती है कि आखिर क्यों राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उलट राष्ट्र निर्माता भीमराव आंबेडकर ने भारत के गांवों को एक गणतांत्रिक व्यवस्था का विलोमार्थी बताया था. जिस प्रकार आंबेडकर भारत के गांवों को भारतीय गणतंत्र की एक ‘इकाई’ मानने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार गांव में सिर्फ एक समान ग्रामीण नहीं रहते बल्कि ‘अछूतों’ का ‘छूतों’ से विभाजन साफ दिखाई देता है, भारत सरकार द्वारा घोषित ‘आदर्श गांव नीमका’ में 18 अप्रैल की घटना के बाद पसरे सन्नाटे के तले ‘अछूतों’ का ‘छूतों’ से विभाजन साफ दिखाई देता है.

भारतीय गांवों को लेकर गांधी और आंबेडकर के द्वारा दी गई संकल्पनाओं के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू की संकल्पना यह कहती है कि भले ही गांवों में जमीदारों और किसानों के बीच या फिर शोषित और शोषक जातियों के बीच लड़ाइयां हों लेकिन खेती में मशीनीकरण और उद्योगों के लगने से रोजगार की नवीन संभावनाओं के बीच जाति व्यवस्था खुद व खुद समाप्त हो जाएगी. लेकिन नीमका गांव में पर्याप्त मात्रा में औद्योगिकीकरण हो जाने के बावजूद दलितों के जातिगत शोषण की कहानी उत्तर भारत के गांवों का अलग ही चरित्र दिखाती है.

आजादी के बाद भारत में अब तक गांधी की संकल्पना पर गांवों में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के पर्याप्त प्रयास हो चुके हैं और देश के प्रथम प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी व्यक्तिगत संकल्पना के आधार पर गांव निर्माण से होते हुए राष्ट्र निर्माण की पर्याप्त कोशिश की ही थी. नीमका सरीखे आधिकारिक रूप से ‘आदर्श’ गांव में आज भी सामाजिक सद्भाव की कमी के चलते दलितों का सामाजिक बहिष्कार इस बात की जरूरत महसूस कराता है कि हमें अपनी राष्ट्रीय संकल्पना में रोजमर्रा के कामों में आंबेडकर के विचारों को पर्याप्त स्थान देना चाहिए.

(लेखक जेएनयू में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं.)

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