जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने अर्नब गोस्वामी व आदित्य राज कौल के ख़िलाफ़ मानहानि केस ख़ारिज किया

पीडीपी नेता नईम अख़्तर द्वारा दायर मामले को रद्द करते हुए जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने कहा कि आधिकारिक पदों पर बैठे लोगों से जुड़े आरोपों की रिपोर्टिंग करना मानहानिकारक नहीं कहा जा सकता. अख़्तर ने 2018 में रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी और पत्रकार आदित्य राज कौल पर जानबूझकर उनके बारे में 'दुर्भावनापूर्ण समाचार' प्रसारित करने का आरोप लगाया था.

पीडीपी नेता नईम अख़्तर द्वारा दायर मामले को रद्द करते हुए जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने कहा कि आधिकारिक पदों पर बैठे लोगों से जुड़े आरोपों की रिपोर्टिंग करना मानहानिकारक नहीं कहा जा सकता. अख़्तर ने 2018 में रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी और पत्रकार आदित्य राज कौल पर जानबूझकर उनके बारे में ‘दुर्भावनापूर्ण समाचार’ प्रसारित करने का आरोप लगाया था.

अर्नब गोस्वामी, नईम अख्तर और आदित्य राज कौल. (इलस्ट्रेशन: द वायर)

नई दिल्ली: जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी और पत्रकार आदित्य राज कौल के खिलाफ पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के नेता नईम अख्तर की मानहानि याचिका को खारिज कर दिया.

बीते बुधवार को दिए अपने आदेश में न्यायालय ने कहा कि आधिकारिक पदों पर बैठे लोगों से जुड़े आरोपों की रिपोर्टिंग करना मानहानिकारक नहीं कहा जा सकता है.

कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि मीडिया का ये काम है कि वे सार्वजनिक व्यक्तियों और लोकसेवकों की रोजमर्रा की गतिविधियों की रिपोर्टिंग करे, जो जनता पर प्रभाव डालती है.

बार एंड बेंच के अनुसार, जस्टिस संजय धर की एकल पीठ ने श्रीनगर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में लंबित मानहानि की कार्यवाही को रद्द कर दिया.

गोस्वामी और कौल, जो उस समय रिपब्लिक टीवी के एंकर थे, के खिलाफ जुलाई 2018 में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, श्रीनगर की अदालत में रणबीर दंड संहिता की धारा 499 (मानहानि) और 500 (मानहानि की सजा) के तहत शिकायत दायर की गई थी.

अख्तर ने कहा था कि चार जुलाई, 2018 को रिपब्लिक टीवी ने उन्हें लेकर ‘अपमानजनक और दुर्भावनापूर्ण समाचार’ प्रसारित किया था. उस समय अख्तर एक विधायक थे और जून 2018 में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार के पतन से पहले उनके पास लोक निर्माण विभाग का प्रभार था. कार्यक्रम में कौल और अन्य ने भाजपा सदस्य खालिद जहांगीर द्वारा 21 जून, 2018 को राज्यपाल को लिखे एक पत्र में लगाए गए आरोपों पर चर्चा की थी.

जहांगीर ने राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री (महबूबा मुफ्ती) के एक ‘करीबी सहयोगी’ के खिलाफ ‘भ्रष्टाचार और पक्षपात’ के आरोप लगाए थे.

अख्तर ने कहा कि भले ही पत्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं था, फिर भी अर्नब गोस्वामी ने उक्त पत्र की रिपोर्ट करते हुए ‘जानबूझकर’ आरोपों के संबंध में उनके नाम का उल्लेख किया.

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कौल समेत कार्यक्रम के एंकर ‘बार-बार और जानबूझकर पत्र में लगाए गए आरोपों के संबंध में अख्तर के नाम का उल्लेख कर रहे थे.’

इसे लेकर जज ने कहा कि ‘सावधानीपूर्वक कार्यक्रम देखने’ के बाद ‘मुझे नहीं लगता कि समाचार कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ताओं की ओर से कोई आरोप लगाया गया है. एंकरों और प्रस्तुतकर्ताओं ने केवल बार-बार खालिद जहांगीर के पत्र का उल्लेख किया और उसकी सामग्री को पढ़ा था.’

जज ने कहा कि न्यूज एंकर सिर्फ इसी बात पर जोर दे रहे थे कि उनकी जानकारी को स्रोत वही पत्र है और यह भी कहा था कि इन आरोपों की सत्यतता का पता लगाया जाना अभी बाकी है.

लाइव लॉ के मुताबिक, न्यायालय ने अपने आदेश में मीडिया के महत्वपूर्ण कार्यों की व्याख्या की है. इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताते हुए जस्टिस धर ने कहा कि मीडिया का ये कार्य है कि वे सार्वजनिक व्यक्तियों के रोजमर्रा की गतिविधियों को रिपोर्ट करे.

कोर्ट ने कहा कि एंकरों ने अपने कार्यक्रम में जो कहा वह सामान्य बात थी, क्योंकि यदि किसी को जम्मू कश्मीर की सत्ता की थोड़ी भी जानकारी है, वो यह बता सकता है कि खालिद जहांगीर के पत्र में बताए में कामों से जुड़ा मंत्री कौन था इसलिए एंकरों द्वारा इसका उल्लेख करना किसी की मानहानि के दावे की पुष्टि के लिए पर्याप्त नहीं है.

कोर्ट ने कहा कि यह स्पष्ट है कि जब कोई पत्रकार किसी सार्वजनिक व्यक्ति संबंध में सटीक और सच्ची रिपोर्ट प्रकाशित करता है, जो पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने का कोई इरादा था.

न्यायालय ने कहा कि इस तरह की खबरों पर रोक लगाना संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत मिली प्रेस की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध होगा.

अदालत ने यह भी कहा कि मौजूदा मामले में मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ता के खिलाफा प्रक्रिया जारी करते हुए अपना दिमाग नहीं लगाया है. उन्होंने कहा कि यदि मजिस्ट्रेट ने रिकॉर्ड में उपलब्ध मौजूदा सामग्री पर विचार किया होता तो वह इस निष्कर्ष पर पहुंचते कि आरोपी के खिलाफ कथित अपराध नहीं बनता है.