कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र में आलोचना, वाद-विवाद और प्रश्नवाचकता की जगहें सिकुड़ जाएं तो ऐसे लोकतंत्र को पूरी तरह से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.
सिकुड़ती जगह
लोकतंत्र में आलोचना, वाद-विवाद और प्रश्नवाचकता की जगहें सिकुड़ जाएं तो ऐसे लोकतंत्र को पूरी तरह से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता: लोकतंत्र में लोग अपनी सत्ता को चुनते हैं पर आलोचना करने, प्रश्न उठाने, जवाबदेही पर इसरार करने का अधिकार अपने पास रखते हैं. इस समय चुनी हुई सत्ता अपनी बहुसंख्यकता के आधार पर ये अधिकार लोगों से या तो छीन रही है या उन्हें अपराध की कोटि में डाल रही है. कला पत्रिका ‘टेक ऑन’ और ‘क्रिएटिव थ्योरी क्लेक्टिव’ ने अपने दो परिसंवादों में इस समय कलाओं, साहित्य, बौद्धिक विमर्श आदि में आलोचना की क्या स्थिति है इस पर व्यापक विचार-विमर्श आयोजित किया. मैं दोनों में शामिल हुआ. इधर जब से संचार साधन अधिक सक्षम और सुगम हुए हैं, ख़ासकर साहित्य में, ऑनलाइन, एक नई तरह की सामुदायिकता विकसित हो रही है, जिसमें तात्कालिकता पर इतना आग्रह है कि किसी तरह की आलोचना के लिए कोई जगह नहीं बची है. मानसिकता कुछ यूं बन रही है कि आस्वादन और मूल्यांकन के लिए, विश्लेषण और व्यापक संदर्भों में जोड़ने के लिए, किसी तरह की आलोचनात्मकता की कोई दरकार नहीं है. सही है कि ऐसी रचनाओं में कई बार बेबाकी और वाग्शूरता नज़र आती है पर वे अधिकांशतः आज की राजनीतिक परिस्थिति के प्रति किसी सजगता से शून्य होती हैं. कई बार यह संदेह होता है कि साहसिकता की सारी नाटकीय मुद्राओं के बावजूद ये रचनाएं एक तरह की राजनीतिक भीरूता या कायरता को छुपा रही हैं. कई मायनों में ग़ैरआलोचनात्मकता दरअसल राजनीतिक कायरता का ही संस्करण है. यह भी ग़ौरतलब है कि इस सर्जनात्मक उद्यम में लगी युवा रचनाशीलता अकसर शिल्प के प्रति लापरवाह है. अगर अनुभव और संवेदना में वह विस्तार कर भी रही है तो ऐसे विस्तार के अनुरूप या समतुल्य शिल्पगत नवाचार नहीं है. यूं तो ज़ोर अभिधा पर है पर वहीं आलोचनात्मक दृष्टि अपनाने से चतुराई से या अबोधपन से बचा जा रहा है. साहित्य में जो स्थिति है वह कम से कम ललित कलाओं में नहीं है. वहां एक तरह की प्रगल्म, उद्धत निर्भीकता है और वहां शिल्प-सामग्री-वक्तव्य आदि में बहुत तरह का रोमांचक नवाचार है. यहां, कई बार बहुत उत्साहजनक ढंग से, सृजन और आलोचना के द्वैत को नष्ट या ध्वस्त किया जा रहा है: सृजन की सजग आलोचना है. प्रयोग वैचारिक कर्म भी है. वहां सामुदायिकता है पर साहित्य की तरह वह सामाजिकता से बचकर विकसित नहीं हो रही है: वहां सामुदायिकता का आधार साझा आलोचनात्मकता है. गै़रआलोचनात्मक तात्कालिकता के लिए वहां बहुत जगह या अवकाश नहीं है. शास्त्रीय संगीत और नृत्य, हमारे यहां प्रायः आलोचनात्मक शून्य या अनुपस्थिति में ही विकसित होते रहे हैं. दो-चार भाषाए जैसे मराठी या बांग्ला छोड़ दें तो अन्य भारतीय भाषाओं में इनकी पारंपरिक आलोचना भी बहुत क्षीण और शिथिल है. इस अभाव ने शास्त्रीय कलाओं को एक गै़रलोकतांत्रिक मानसिकता में घेर रखा है और वे प्रायः सत्ता के समर्थन में एकत्र होती रहती हैं. इस समय भी वे यही कर रही हैं.नक़्श फ़रियादी
बड़ी कविता का एक गुण यह होता है कि वह अपने काल से दूर किसी काल में नया अर्थ प्रगट करती है. इस समय जो माहौल और एक तरह की राजनीति और राजनेता अपने को लगभग अमर-अटल मान रहे हैं, उनमें ग़ालिब के दीवान की पहली ग़ज़ल का पहला शेर याद आया : नक़्श-ए- फ़रियादी है, किसकी शोख़ी-ए-तहरीर काकाग़जी है पैरहन, हर पैकर-ए-तस्वीर का. पुराने समय में ईरानी बादशाहों के दरबार में फ़रियाद करने वाले को काग़ज के वस्त्र पहनकर जाना होता था जिस पर फ़रियाद अंकित होती थी ताकि बादशाह उसे एक नज़र में पढ़ सके. इस प्रसंग से ग़ालिब अपने शेर की दूसरी पंक्ति में कहते हैं कि जिस बादशाह के सामने काग़जी पैरहन पहनकर फ़रियाद की जा रही है और जिसके सामने फ़रियादी दीनता दिखा रहा है, वह बादशाह खुद काग़जी पैरहन ही पहने है. आशय यह है कि सत्ता स्वयं भंगुर है, उसके सामने दीनता ज़रूरी नहीं. चूंकि इस समय सत्ताधारियों का पैरहन पर, उसे बार-बार, दिन में कई बार बदलने पर बड़ा ज़ोर है, यह कविता उचित ही आश्वस्त करती है कि जैसी भी चकाचौंध करने वाला पैरहन हो वह अंतत: काग़जी यानी क्षण भर के लिए ही है. क्या यह आकस्मिक है कि ग़ालिब से सदियों पहले कबीर ने संसार को ‘काग़ज की पुड़िया’ बताया था ओर कहा था कि वह ‘बूंद पड़े गल जाना है?’ (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.) The post आलोचना की अनुपस्थिति appeared first on The Wire - Hindi.