दिल्ली हिंसा के ज़िम्मेदार सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं

04:50 PM Feb 27, 2020 | अपूर्वानंद

दिल्ली हिंसा की तैयारी में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, दूसरे केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा के नेताओं के प्रत्यक्ष और परोक्ष मुसलमान विरोधी उकसावे की भूमिका है. अगर कभी इस हिंसा की निष्पक्ष जांच हुई, जिसकी उम्मीद न के बराबर है तो इन सब पर इन सभी हत्याओं के लिए ज़िम्मेदारी तय की जाएगी.

उत्तर पूर्वी दिल्ली के शिव विहार इलाके में उपद्रवियों द्वारा जलाई गईं गाड़ियां. (फोटो: पीटीआई)

इस झूठ को झूठ कहना ही होगा कि दिल्ली की हिंसा स्वतः स्फूर्त थी. यही गृह मंत्रालय ने कहा है. गृह मंत्रालय में गृहमंत्री होता है लेकिन बाकी अधिकारी होते हैं. गृहमंत्री की राजनीति तो साफ है लेकिन क्या उन सब अधिकारियों ने क्या अपना ईमान बेच दिया? हमारे देश के सबसे ताकतवर पदों पर आसीन ये हमारे हुक्मरान क्या सिर्फ हुकमी बंदे हैं?

जब अदालत को आधी रात बैठना पड़े और पुलिस को यह निर्देश देना पड़े कि वह घायलों की मदद के लिए एम्बुलेंस को आने-जाने की इजाजत दे और निश्चित करे कि आना-जाना अबाधित हो, तब आप समझ सकते हैं कि दिल्ली और देश किस हालत में पहुंच गया है कि यह स्वतः स्फूर्त न था.

पुलिस का यह रुख क्या स्वतः स्फूर्त था? जब भरी अदालत में पुलिस का वरिष्ठ अधिकारी यह कहे कि उसने उस भड़काऊ भाषण का वीडियो नहीं देखा है जो शासक दल के एक नेता ने दिया और जिसके बाद हिंसा शुरू हुई और फिर अदालत को पुलिस अधिकारी को मजबूर करना पड़े कि वह भरी अदालत में वह वीडियो देखे, तब भी आप समझ सकते हैं कि कानून व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस की कितनी दिलचस्पी है.

जब देश का महाधिवक्ता इस सब के बाद पुलिस की ओर से माफी मांगने की जगह अदालत को कहे कि वह पुलिस के ऊपर कोई प्रतिकूल टिप्पणी न करे क्योंकि उसका मनोबल गिर जाएगा लेकिन इसके लिए ज़रा भी शर्मिंदा न हो कि उस पुलिस की निगरानी में हिंसा होती रही तो मनोबल शब्द के मायने बदल दिए जाने चाहिए.

यह सब सिखों ने 1984 में देखा था. मुसलमानों ने बार-बार. आजादी मिलने के बाद हर कुछ वक्त के बाद मुसलमानों ने यह देखा है. पुलिस की निगरानी में उन्हें मारा जाना और बर्बाद किया जाना. दिल्ली में पिछले हफ्ते जो भी हुआ, वह नया न था.

हमारे दिल्ली के दोस्तों ने 1984 में सिखों पर हमले को सुगम बनाने में पुलिस का मनोबल देखा था और मुझ जैसे लोगों ने पटना में. यह नया नहीं है, न पुलिस का मन और न उसका बल, फिर भी दिल्ली की इसी पुलिस का रुख अदालत की सख्ती के बाद बदला तो नया तो कुछ था इस बार जो पहले न था.

नया यह था कि शासक दल के नेता लगातार हिंसा की तैयारी करें,अपनी जनता को मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाएं और इस सब को उनका अभिव्यक्ति का अधिकार माना जाए. बार-बार कपिल मिश्रा के सबसे ताजा हिंसक भाषण का हवाला दिया जा रहा है लेकिन मिश्रा ने तो अपने नेताओं के इशारों का पालन भर किया है.

जब देश के गद्दारों को गोली मारने का खुलेआम ऐलान एक केंद्रीय मंत्री करवाए, जब दूसरा मुसलमानों को सीधे सबक सिखाने की बात करे, जब गृहमंत्री धरने पर बैठी मुसलमान औरतों को करंट का झटका देने की बात करे, जब प्रधानमंत्री मुसलमानों के क्षोभ प्रदर्शन को एक प्रयोग ठहराए तब यह समझने में कोई परेशानी न होनी चाहिए कि कपिल मिश्रा का भाषण एक लंबे सिलसिले की अब तक की आखिरी कड़ी था.

आखिर परवेश वर्मा को शाहीन बाग के खिलाफ ज़हरीले वक्तव्य के बाद चुना गया राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद चर्चा शुरू करने के लिए. यह अगर उनको पीठ थपथपाना न था तो फिर क्या था? इसके बाद भी अगर इस हिंसा के स्रोत को लेकर उलझन है, तो मान लेना चाहिए कि हम एक सत्य देख तो रहे हैं लेकिन उसे कबूल नहीं करना चाहते.

बार-बार पत्रकार पूछ रहे हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति के आने के वक्त ही हिंसा क्यों भड़की? क्या यह किसी की साजिश थी भारत की छवि बिगाड़ने की? इसमें कहीं संकेत यह है कि यह हिंसा कैसे शासक दल चाह सकता था जब अमेरिका का राष्ट्रपति भारत के दौरे पर हो?