पिछले साल 19 दिसंबर को सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान हिंसा और पुलिस पर हमले के आरोप में मैंगलोर पुलिस ने 22 लोगों को आरोपी बनाया था. बीते 17 फरवरी को कर्नाटक हाईकोर्ट ने ठोस सबूत नहीं होने की बात कहते हुए सभी 22 लोगों को जमानत दे दी थी.
भारतीय सुप्रीम कोर्ट (फोटो: रायटर्स)
बेंगलुरु: कर्नाटक के
मेंगलुरु में 19 दिसंबर 2019 को सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान हिंसा और पुलिस पर हमले के आरोप में मैंगलोर पुलिस द्वारा आरोपी बनाए गए गए
22 लोगों को जमानत देने के कर्नाटक हाईकोर्ट के आदेश पर शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी.
लाइव लॉ के मुताबिक सीजेआई एसए बोबडे, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की तीन सदस्यीय पीठ ने राज्य के अधिकारियों द्वारा दाखिल याचिका में कथित प्रदर्शनकारियों को नोटिस भी जारी किया.
आदेश में कहा
, ‘नोटिस
जारी
किया
जाता
है कि
आरोपियों
के
हिरासत
में
रहने
के
कारण
हाईकोर्ट
द्वारा
पारित
निर्णय
और
आदेश
के
संचालन
पर
अंतरिम
रोक
होगी.’ कर्नाटक राज्य ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को चुनौती दी है जिसमें इसे
‘दुर्भावनापूर्ण
’ जांच कहा
.
आज तक के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक सरकार की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया
(पीएफआई
) के इन कार्यकर्ताओं ने पुलिस भी पर हमला किया था
. 19 दिसंबर को मोहम्मद आशिक सहित
20 लोगों ने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान मंगलौर के थाने में आग लगा दी थी
.
कर्नाटक हाईकोर्ट ने
17 फरवरी के अपने आदेश में कहा था कि रिकॉर्ड बताते हैं कि जानबूझकर साक्ष्य तैयार करने के लिए और सबूतों को गढ़ कर याचिकाकर्ताओं को स्वतंत्रता से वंचित करने का प्रयास किया गया है. यह विवादित नहीं है कि याचिकाकर्ताओं में से किसी का भी कोई आपराधिक इतिहास नहीं है. याचिकाकर्ताओं के खिलाफ लगाए गए आरोप मृत्यु या आजीवन कारावास के साथ दंडनीय नहीं है.
आदेश में ये भी कहा गया था कि याचिकाकर्ताओं को कथित अपराधों से जोड़ने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है. जांच में चूक और पक्षपात दिखता है. उक्त परिस्थितियों में याचिकाकर्ताओं के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उनकी जमानत को स्वीकार किया जाता है.
इसके अलावा
रिकॉर्ड पर लगाए गए सबूतों पर टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने कहा था कि जांच एजेंसी द्वारा एकत्र की गई सामग्री में कोई ठोस सबूत नहीं है कि घटनास्थल पर कोई भी याचिकाकर्ता उपस्थित था.
वहीं सारे आरोप
1500-2000 की मुस्लिम भीड़ के खिलाफ लगाए गए हैं
और कहा गया है कि वे पत्थरों
, सोडा की बोतलों और कांच के टुकड़ों जैसे हथियारों से लैस थे. एसपीपी द्वारा प्रस्तुत की गई तस्वीरों से पता चलता है कि भीड़ में एक सदस्य के पास एक बोतल को छोड़कर कोई हथियारों से लैस नहीं था.
इनमें से किसी भी तस्वीर में पुलिस स्टेशन या पुलिसकर्मी नहीं हैं. अदालत ने टिप्पणी करते हुए यह भी कहा था कि याचिकाकर्ताओं द्वारा दी गई तस्वीरों से पता चलता है कि पुलिसकर्मी खुद भीड़ पर पथराव कर रहे थे.
अदालत ने इस तथ्य पर भी विचार किया था कि प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस द्वारा
31 एफआईआर दर्ज की गई थी
. वहीं घायलों के परिवार और पुलिस गोलीबारी में मरने वाले लोगों की शिकायतों पर कोई मामला दर्ज नहीं किया गया था.
अदालत ने कहा था,
‘भले
ही
कानून
ने
पुलिस
को
पुलिस
अधिकारियों
के
खिलाफ
संज्ञेय
अपराध
के
तहत
की
गई
विशेष
शिकायत
के
मद्देनजर
स्वतंत्र
प्राथमिकी
दर्ज
करने
की
आवश्यकता
की
हो
, लेकिन
प्रतिवादी
पुलिस
एफआईआर
दर्ज
करने
में
विफल
रही
है
, जो
यह
दिखाने
के
लिए
माना
जाएगा
कि
जानबूझकर
मामले
को
दबाने
का
प्रयास
किया
जा
रहा
है.’
पुलिस
ने
निर्दोष
व्यक्तियों
को
अपने
झांसे
में
फंसाकर
ज्यादती
की.
पुलिस
का
अतिउत्साह
भी
इस
तथ्य
से
स्पष्ट
है
कि
पुलिस
द्वारा
मारे
गए
व्यक्तियों
के
खिलाफ
आईपीसी
की
धारा
307 के
तहत
एफआईआर
दर्ज
की
गई
है.
जवाबी
आरोपों
के
मद्देनज़र
पीड़ितों
द्वारा
दर्ज
की
गई
शिकायतों
के
आधार
पर
एफआईआर
दर्ज
करने
में
पुलिस
की
विफलता
की
पृष्ठभूमि
में
झूठे
और
गलत
निहितार्थ
की
संभावना
से
इनकार
नहीं
किया
जा
सकता
है.’
याचिकाकर्ताओं को जमानत ना देना और जिला प्रशासन और पुलिस की दया पर उनकी स्वतंत्रता का बलिदान करने के लिए छोड़ देना न्याय का मखौल उड़ाना होगा.
हाईकोर्ट ने निर्देश दिया था कि अभियुक्तों को एक लाख रुपये के बांड और दो निश्चित राशि के मुचलके पर जमानत पर रिहा किया जाए. उन्हें यह भी निर्देशित किया गया कि जब भी आवश्यकता हो न्यायालय के समक्ष उपस्थित रहें और समान अपराधों में शामिल न हों
; साथ ही अनुमति के बिना
, न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र को छोड़कर ना जाएं.
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सीएए विरोध: 22 लोगों को जमानत देने के कर्नाटक हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक appeared first on
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