भारत के विचार पर व्यापक और समावेशी विचार-विमर्श, संवाद की जगह कहां है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारी सभ्यता आरंभ से ही प्रश्नवाचक रही है और उसकी प्रश्नवाचकता-असहमति-वाद-विवाद, संवाद का भारत में पुनर्वास करने की ज़रूरत है. इस समय जो धार्मिक और बौद्धिक, राजनीतिक और बाज़ारू ठगी हमें दिग्भ्रमित कर रही है, उससे अलग कोई रास्ता कौन तलाश करेगा यह हमारे समय का एक यक्षप्रश्न है. The post भारत के विचार पर व्यापक और समावेशी विचार-विमर्श, संवाद की जगह कहां है appeared first on The Wire - Hindi.

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारी सभ्यता आरंभ से ही प्रश्नवाचक रही है और उसकी प्रश्नवाचकता-असहमति-वाद-विवाद, संवाद का भारत में पुनर्वास करने की ज़रूरत है. इस समय जो धार्मिक और बौद्धिक, राजनीतिक और बाज़ारू ठगी हमें दिग्भ्रमित कर रही है, उससे अलग कोई रास्ता कौन तलाश करेगा यह हमारे समय का एक यक्षप्रश्न है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

एक समय था जब कम से कम भारत में सभी कलाओं और साहित्य के बीच परस्पर संवाद-सहकार था. सभी एक-दूसरे को जानते-पहचानते थे और यह जान-पहचान अक्सर किसी संयुक्त प्रयत्न में भी परिणत होती थी. यह समय 19वीं शताब्दी तक था यानी पश्चिम-प्रेरित आधुनिकता के भारत में प्रभावशाली और निर्णायक होने से पहले तक.

इस आधुनिक हस्तक्षेप ने कलाओं की पारंपरिकअंतर्निर्भरता को खंडित कर नया विभाजन किया जिसमें संगीत और नृत्य शास्त्रीय हो गए और साहित्य, रंगमंच और ललित कलाएं आधुनिक. यह विभाजन इतना गहरा और दीर्घजीवी हुआ कि सौ साल से अधिक समय से सक्रिय है और कलाओं में आपस में कोई मुंहबोला तक नहीं है.

शास्त्रीय नर्तकी नहीं जानती, न जानना ज़रूरी समझती है कि समवर्ती ललित कला या कविता में क्या हो रहा है और उसी न्याय से आधुनिक कवि और चित्रकार नहीं जानते या समझते कि शास्त्रीय नृत्य में क्या हो रहा है. हमारी तीन राष्ट्रीय अकादमियों ने इन दूरियों और अपरिचय को हटाने या कम करने के लिए लगभग कुछ कारगर नहीं किया है.

विडंबना है कि कलाओं की ही तरह इन अकादमियों में भी परस्पर मुंहबोला नहीं है. भारत भवन ने इस दिशा में कम से कम एक दशक तक गंभीर प्रयत्न किया और उसके अच्छे नतीजे भी निकले पर वे दीर्घगामी नहीं हो सके. रज़ा फाउंडेशन ने अपने वार्षिक शिविरों, युवा हिंदी लेखकों के वार्षिक आयोजनों, रज़ा पर्व आदि में फिर कोशिश करना शुरू किया है. उनका दृश्य पर कितना प्रभाव पड़ता और टिकाऊ होता है यह आगे की बात है.

रज़ा शती के अंतर्गत एक नया प्रयोग इधर यह किया कि फाउंडेशन ने शास्त्रीय नृत्यकारों को प्रेरित किया कि वे अपनी-अपनी विशिष्ट शैली में रज़ा के जीवन, कलादृष्टि और कलासृष्टि से उत्प्रेरित नई कोरियोग्राफी करें. कथक, भरतनाट्यम, सत्रिया और मोहनीअट्टम की चार नर्तकियों ने यह नई कोरियोग्राफी पिछले सप्ताह ‘डांसिंग रज़ा’ नामक नृत्य समारोह में प्रस्तुत कीं. देखने-सराहने जो दर्शक जुटे उनमें कुछ लेखक, चित्रकार आदि भी सौभाग्य से थे.

कोई कला किसी और कला के बारे में नहीं होती या हो सकती. वह दूसरी कला से संवाद कर सकती है और कई बार ऐसा कुछ, इस संवाद के कारण, कर पाती है जो वह शायद उसके बिना न कर पाती. समारोह में जो प्रस्तुतियां हुईं तो स्पष्ट हुआ कि उनसे यह संभव हुआ है कि आधुनिक चित्रकला और शास्त्रीय नृत्य में सार्थक संवाद संभव है: उससे शास्त्रीय की आधुनिकता और आधुनिक की शास्त्रीयता दोनों ही उद्दीप्त होते हैं. नर्तकियों ने अपने-अपने ढंग से रज़ा के चित्रों और दृष्टि से आशय और अर्थ खोले.

हमारे शास्त्रीय नृत्य में जो अंतर्भूत अमूर्तन है वह तरह-तरह से आलोकित-प्रगट हुआ. यह भी साफ़ था कि यह प्रयोग करने में कलाकारों को आनंद आया. किसी चित्रकार से प्रेरित इतनी नृत्य-रचनाएं पहले कभी हुई हों और उनकी एक ही मंच पर प्रस्तुति हुई हों ऐसा शायद शास्त्रीय नृत्य और आधुनिक चित्रकला के इतिहास में पहली बार हुआ.

दूर असम की हाल ही में शास्त्रीय के रूप में मान्यता प्राप्त नृत्यशैली सत्रिया में अन्वेषा महंत ने रज़ा के यहां आकार और निराकार के बीच जो क्रीड़ा-सी है उसे उपजीव्य बनाया और रज़ा के ‘बिंदु’ में निहित शून्यता को लक्ष्य किया. उनके नृत्य में क्षिप्रता और धैर्य के बीच सुन्दर समरसता है. भरतनाट्यम की विख्यात नर्तकी रमा वैद्यनाथन ने रज़ा के कुछ चित्रों के मंच पर प्रक्षेपण और उसमें प्रयुक्त कुछ कविता पंक्तियों ‘उस तमशून्य में तैरती है जगत् समीक्षा’, ‘पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला’, ‘मां लौटकर जब आऊंगा, क्या लाऊंगा’ और रज़ा के एक वैचारिक आग्रह ‘मनसा प्रत्यक्षता’ को कर्नाटक शैली में सुमधुर गायन से स्फूर्तिमय नृत्य किया.

मोहिनीअट्टम की गोपिका वर्मा ने रज़ा के कुछ सौंदर्य-अभिप्रायों जैसे कुंडलिनी आदि के सहारे अपने नृत्य में कुछ नया उन्मेष दिखाया. कथक की प्रेरणा श्रीमाली ने रज़ा के नर्मदा नदी के प्रति आकर्षण, पंचतत्व आदि को लेकर जो प्रस्तुति की उसमें कथक के अमूर्तन तत्व का बहुत अभिराम और सार्थक विस्तार सामने आया. उनकी अमूर्त गाथा में रज़ा लगातार बहुत रोचक ढंग से अंतःसलिल रहे.

भारत विचार

यह प्रश्न उठता रहा है कि क्या भारत का कोई समग्र या स्पष्ट, अद्वितीय विचार या विचार-समुच्चय है. क्या अगर भारत एक सभ्यता भी है, देश होने के अलावा, तो इस सभ्यता के संस्थापक और अन्यथा विकसित कोई विचार रहे हैं? अगर भारत सभ्यता और देश दोनों ही रूपों में बहुलतापरक है तो क्या उसके विचार भी उतने ही बहुलतापरक हैं? अगर भारत में धर्म-भाषा-भोजन-वेशभूषा-रीति-रिवाज़ आदि सभी में अदम्य बहुलता है तो क्‍या या क्यों उसे किसी एक विचार या विचारधारा द्वारा समझा या समझाया या चलाया जा सकता है?

आज इन प्रश्नों में नई तीक्ष्णता और प्रासंगिकता आ गई है क्योंकि सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा भारत संबंधी अपनी दृष्टि और विचारधारा को भारत-विचार का एकमात्र प्रामाणिक संस्करण मानने पर आक्रामक इसरार किया जा रहा है. यह प्रश्न भी उठ रहा है कि भारत मुख्यतः उसके बहुसंख्यक समुदाय का है या कि उसमें, उसकी संस्कृति और विचार में, औरों की भी जगह और भूमिका है. इस पर भी विचार करना ज़रूरी है कि भारत के, उसके लिए ‘दूसरे’ कौन हैं और उनकी क्या पूछ और जगह है.

इसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि इस मुक़ाम पर राजनीति इतनी सर्वग्रासी हो गई है कि इन प्रश्नों पर बौद्धिक और वैचारिक विमर्श और बहस होना लगभग बंद-सा है या बहुत संकुचित हो गया है. इसे विचित्र ही कहना होगा कि भारत का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले वर्ग भी भारत-विचार पर विचार पर करना ज़रूरी नहीं समझते.

जाहिर है कि भारत-विचार पर व्यापक और गहन चिंतन समाजविज्ञान, राजनीति शास्त्र, इतिहास और पुरातत्व, संस्कृति, भाषा, धर्मचिंतन, दर्शन, साहित्य और कलाओं, विज्ञान, टेक्नोलॉजी, पर्यावरण आदि के लोग ही मिल-बैठकर कर सकते हैं. ऐसे व्यापक और समावेशी विचार-विमर्श, संवाद की जगह इस समय हमारे यहां कहां है? हमारी उच्च शिक्षा इस समय इस क़दर उपकरणवादी और ठस हो गई है कि वहां ऐसी जगह और अवसर होने की अपेक्षा तक व्यर्थ, लगभग असंभव लगती है.

सार्वजनिक संस्थाओं की जो दुर्गति हो गई है कि किसी नई सार्वजनिक संस्था इस काम के लिए सुझाई जाए इसमें बहुत संकोच होता है. अनौपचारिक से कुछ तो ज़रूर किया जा सकता है और ऐसा कुछ-न-कुछ प्रयत्न यहां-वहां चिंतित बुद्धिजीवी और लेखक आदि कर भी रहे हैं.

पर, फिर भी, क्या किसी भारत विचार संस्थान की कल्पना की जा सकती है? क्या ऐसी स्वतंत्रचेता, संस्था बनाई और चल सकती है जो लगातार उन प्रश्नों पर विचार कर कुछ नई समावेशी दृष्टि विकसित करने की चेष्टा करे? क्या कहीं ऐसे युवा हैं जो इसकी पहल कर सकते हैं क्योंकि उनके मन में भारत के भविष्य की गहरी चिंता है और वे अपने देश और सभ्यता के उत्तराधिकार के वर्तमान विकृतीकरण और प्रदूषण के विरूद्ध कुछ ठोस और कारगर करना चाहते हैं?

हमारी सभ्यता आरंभ से ही प्रश्नवाचक रही है और उसकी प्रश्नवाचकता-असहमति-वादविवाद संवाद का भारत में पुनर्वास करने की ज़रूरत है. इस समय जो धार्मिक और बौद्धिक, राजनीतिक और बाज़ारू ठगी हमें दिग्भ्रमित कर रही है, उससे अलग कोई रास्ता कौन तलाश करेगा यह हमारे समय का एक यक्षप्रश्न है.

अद्वितीय

वह जब तक थीं अपनी उपस्थिति, सक्रियता, दृष्टि और हस्तक्षेप में प्रथम थीं. एक लेखक के रूप में वे अद्वितीय थीं कि उन्होंने स्त्री होने के आधार पर कभी कोई रियायत नहीं चाही और पुरुष-बहुल साहित्य-समाज में अपनी शर्तों पर अपनी विशिष्ट दृष्टि और शैली में साहित्य रचा और अपनी जगह बनाई. उस जगह भौतिक रूप से ख़ाली हुए इस 25 जनवरी को 4 बरस हो जाएंगे.

कृष्णा सोबती के अंतिम दिनों में जब वे अस्पताल में भर्ती थीं तब उनकी चिंता अपने स्वास्थ्य को लेकर कम, देश की राजनीति और संस्कृति में जो हो रहा था उसको लेकर अधिक थी. उन्हें लगता था कि वे जिस संसार को जल्दी ही छोड़ने वाली थीं वह उस संसार से कहीं बदतर, क्रूर-हिंसक-नीच-बाज़ारू था, जो संसार तब था जब उन्होंने जीवन में प्रवेश किया था. उनका साहित्य, कुल मिलाकर, अदम्य जिजीविषा, उसकी विडंबनाओं और उत्ताप का साहित्य है: उसमें गहरी प्रश्नाकुलता है जो उसके लालित्य को दबा नहीं पाती.

उनके चरित्र याद आते रहते हैं और उनके वे सब ढब भी, जो कृष्णा जी ने बहुत सतर्क संवेदनशीलता से पकड़े और व्यक्त किए. अगर उपन्यास हमारे समय का महाकाव्य है, जैसा कि कहा जाता है, तो कृष्णा जी के यहां महाकाव्यात्मक दृष्टि है जो जीवन के वितान को समेटती-सहेजती है. वे गाथाकार हैं जो कालबद्ध तो हैं पर कालजयी भी.

शुभकामनाएं

जन्मदिन पर शुभकामनाएं इतनी अधिक हो जाएं कि उनमें से हरेक का उत्तर दे पाना असंभव हो जाए, तब भी हरेक शुभकामना का महत्व और मूल्य होते हैं. जितना हम अपनी जिजीविषा के सक्रिय-उदग्र रहने से जीते हैं, उतना ही हमें दूसरों से सहायता, सहकार और सद्भाव चाहिए. आत्म अपने आप नहीं बन जाता- उसमें दूसरों की भी जगह और भूमिका होती है.

एक ऐसे समय में, जिसमें बहुत सा अशुभ आसपास घट रहा हो, हेकड़ी से किया जा रहा हो, मित्रों से शुभकामनाएं पाना मेरे लिए बहुत मार्मिक हो जाता है. मन गहरी कृतज्ञता से भर जाता है और अगर थोड़ी बहुत कटुता अब भी बची रह गई हो गल-धुल जाती, ग़ायब हो जाती है. अशुभ समय में शुभाकांक्षी मित्र बंधु होना उपलब्धि है: वह आपको, कम-से-कम मुझे तो ज़रूर ही, अशुभ कुछ कहने-करने-चाहने से रोकती भी है. इसलिए सभी मित्रों का बहुत आभार.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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