भूगर्भ वैज्ञानिक निरंतर चेतावनी दे रहे हैं कि सभी ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में विभिन्न मौसमी बदलाव हो रहे हैं. ऐसे में तरह-तरह के हाइड्रोप्रोजेक्ट बनाने की ज़िद प्राकृतिक हादसों को आमंत्रण दे रही है. सबसे चिंताजनक यह है कि केंद्र या उत्तराखंड सरकार इन क्षेत्रों में लगातार हो रहे हादसों से कुछ नहीं सीख रही है.
यह भी पढ़ें: चारधाम समिति के प्रमुख ने कोर्ट से कहा- पनबिजली प्रोजेक्ट, सड़क चौड़ीकरण से आई आपदा
ज्ञात रहे कि योजना के मुताबिक इस प्रोजेक्ट को 2023 में आरंभ होना था. इस क्षेत्र में भारी वर्षा के कारण कुछ माह निर्माण कार्यो में बाधाएं रहती हैं और जाहिर है कि इसी लिहाज से दिन रात इस प्रोजेक्ट को काम पूरा करने की होड़ के कारण ही करीब 200 से ज्यादा कर्मचारी और श्रमिक दिन रात अपना काम पूरा करने पर जुटे हुए थे. अभी तक इस ताज़ा हादसे के सटीक कारणों पर वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के बीच द्वंद्व ही चलता दिख रहा है. लेकिन एक मुददे पर विशेषज्ञों में आम सहमति है कि ऐसी प्रकृति के हादसे भले ही हिमालय में लगतार न हों लेकिन नाजुक संवेदनशील क्षेत्र में इस तरह के हादसों की न केवल हिमालय बल्कि से बहकर निकल रही गंगा, यमुना और उनकी सहायक दर्जनों नदी नालों के साथ उस क्षेत्र में मानवता के अस्तित्व पर दूरगामी असर निरंतर पड़ता दिख रहा है. विशेषज्ञ लगातार सरकारी व्यवस्था को इसके लिए आगाह कर रहे हैं. केंद्र सरकार का पर्यावरण व वन मंत्रालय दिसंबर 2014 में ही सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर स्वीकार कर चुका है कि उत्तराखंड के ऊपरी पर्वतीय क्षेत्रों में इस तरह के बांध बनाकर उर्जा परियोजनाएं बनाना पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक है. केदारनाथ आपदा की चेतावनियों के मद्देनजर केंद्रीय मंत्रालय ने खुद ही माना कि प्रकृति की संवेदनशीलता के विरुद्ध की गई छेड़छाड़ से वहां के इको सिस्टम को गहरी क्षति पहुंच रही है. 2013 की केदारनाथ आपदा के हालात पर विशेषज्ञ कमेटी की रिपोर्ट पर केंद्र सरकार के साथ ही उत्तराखंड सरकार भी मौन साधे बैठी रही. जबकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से सरकार से निर्माणाधीन व प्रस्तावित सभी परियोजनाओं पर काम स्थगित करने को कहा गया था. दिन और साल बीतते गए. हाइड्रोप्रोजेक्ट बनाने वाली ताकतवर लॉबी का सरकार, मंत्रियों व नौकरशाही के साथ गहरे गठजोड़ के बाद सुप्रीम कोर्ट की आंखों में धूल झोंकने के लिए कथित विशेषज्ञों की ऐसी कमेटियां बनाई गईं, जो सरकारी तंत्र व लॉबियों के इशारों पर अपनी रिपोर्ट दें. एक तरफ मामले सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं. लेकिन सर्वोच्च अदालत की फटकार को ठेंगे पर रखते हुए एनटीपीसी की अगुवाई में निर्माणाधीन योजनाओं पर काम पूरा करने की होड़ जारी रही. 2014 से 2016 के बीच ही केंद्र सरकार की ओर से पर्वतीय क्षेत्रों में कम से कम छह हाइड्रोप्रोजेक्ट्स परियोजनाओं को हरी झंडी दी गई. नदियों के विशेषज्ञ व भूगर्भ वैज्ञानिक लगातार इस बात के लिए भी आगाह करते रहे हैं कि ऐसे ऊपरी क्षेत्रों में जहां किसी भी तरह की आपदा या ग्लेशियर टूटने से पहाड़ों से उतरकर आने वाली इन नदियों पर तालाब बन जाने से नीचे दर्जनों किमी तक इनके मुहानों पर बसे गांव व दूसरा जनजीवन प्रभावित हो सकता है. जैसे कि ऋषि गंगा को तबाह करने के पीछे धौली गंगा ने मंदाकिनी घाटी में जो तबाही मचाई और जो वीडियो स्थानीय लोगों ने बाहरी दुनिया को भेजे, उनसे साफ दिखता है कि ऊपरी क्षेत्र से भारी शोर के बीच उफनती तेज धारा अपने रौद्र रूप मे सब कुछ साथ में बहा ले जा रही है. नाजुक संकरी चट्टानों को चीर कर बाहर निकलने के अलावा कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं था. इन्हीं संकरे मुहानों पर जब इन नाजुक नदियों का नैसर्गिक प्रवाह बाधित करके बांध और टनलें खोदी जाएंगी तो जाहिर सी बात है कि नदियों के किनारे सुरंगें खोदने व चट्टानों को तोड़ने के लिए डायनामाइट जैसा हर तरह के विस्फोट का इस्तेमाल होता रहा है. इन भारी विस्फोटों से चट्टानों के बीच नाजुक जल स्रोत लुप्त होते जा रहे हैं. क्योंकि इन्हीं हिमालयी स्रोतों से नदियों की धारा नये वेग में आगे बढ़ती रही हैं. नदियों में मिलने वाले सैकड़ों जल स्रोत आज की तारीख में न केवल खत्म हो चुके हैं बल्कि जो स्थानीय गांवों की आबादी उन प्राकृतिक जल स्रोतों पर निर्भर थी वह भी वंचित हो चुकी है. स्थानीय प्रशासन व राज्य सरकार के अमले को हर बात का पता होता है कि हाइड्रो कंपनियां और उनके ठेकेदार किस कदर पहाड़ों को खोखला कर रहे हैं लेकिन उत्तराखंड से लेकर दिल्ली तक सत्ता के गलियारों तक हाइड्रोप्रोजेक्ट वालों की लॉबी इतनी मजबूत होती है कि स्थानीय निवासियों के अलावा विशेषज्ञों व पर्यावरण विशेषज्ञों के विरोध की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह कुंद पड़ जाती है.
यह भी पढ़ें: उत्तराखंड सरकार ने पनबिजली परियोजनाओं द्वारा कम पानी छोड़ने की वकालत की थी
लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी. मंदाकिनी नदी चाहे ऋषि गंगा हाइड्रोप्रोजेक्ट हो या तपोवन विष्णुगाड परियोजना इनको सुरक्षा और अस्तित्व के लिए खतरा बताते हुए स्थानीय लोग हमेशा विरोध करते रहे हैं. साफ जाहिर है कि जानबूझकर इन योजनाओं को नाजुक हिमालय पर थोपा जाता रहा है. पिछली गलतियों से न कोई सबक सीखा गया और ना ही ऐसे आसार नजर आ रहे हैं कि इन परियोजनाओं पर कोई गंभीर पुर्नविचार हो. सरकार भले ही दावा करती रही है कि नदी नालों को पुनर्जिवित किया जाएगा लेकिन असल में व्यावहारिक तौर पर सरकारी तंत्र जिन घातक नीतियों पर जमीन पर अमल कर रहा है, ऊपरी हिमालय की इन नदियों का पुर्नजीवन करना तो दूर उनका मौजूदा अस्तित्व और वजूद ही खतरे में है. भाजपा सरकार में केवल उमा भारती ही ऐसी शख्सियत रहीं जिन्होंने 2014 से 2017 तक जल संसाधन विकास व गंगा पुर्नजीवन मंत्रालय संभालते हुए सही मायनों में पहाड़ों में पन बिजली परियोजनाओं की आड में नदियों के अविरल बहाव को रोकना गंगा के अस्तित्व के लिए सबसे घातक बताया. पर्वतीय क्षेत्रों की तबाही का दूसरा बड़ा कारण है जंगलों का तेजी से विनाश. यह दो कारणों से हुआ है. पहला सड़कों का जाल बिछाने के लिए बेहिसाब तरीके से पेड़ों की कटाई और दूसरा हर साल आग लगने से बेशकीमती दुर्लभ वनपस्पति लुप्त होना. पर्वतीय क्षेत्रों में सब लोग जानते हैं कि बार-बार जंगलों में इस आगजनी में वन विभाग और उनके साथ मिलीभगत में सक्रिय लकड़ी माफिया व पशु तस्करों का हाथ होता है. चारधाम यात्रा के लिए ऑल वेदर रोड से कितने जंगलों व पेड़ों की बलि दी गई इसका कोई हिसाब सरकार के पास नहीं है. सिर्फ तुर्रा दिया जाता है कि ऑल वेदर रोड बनने से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा लेकिन नाजुक पहाड़ों में इस तरह की सनक भरी नीतियों से केवल भीड़ और मोटर वाहनों का सैलाब बढ़ाकर कार्बन की मात्रा कई गुना बढ़ाने का इंतजाम हो रहा है. आगजनी और वाहनों का सैलाब हिमालय में ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों को और भी बढ़ा रहे हैं. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)