नॉर्थ ईस्ट डायरी: असम के राष्ट्रीय उद्यान से हटाया गया राजीव गांधी का नाम, कांग्रेस की आपत्ति

इस हफ्ते नॉर्थ ईस्ट डायरी में असम, मिज़ोरम और नगालैंड के प्रमुख समाचार.

इस हफ्ते नॉर्थ ईस्ट डायरी में असम, मिज़ोरम और नगालैंड के प्रमुख समाचार.

राजीव गांधी ओरंग राष्ट्रीय उद्यान (फोटो साभार: फेसबुक)

गुवाहाटी/नई दिल्ली/आइजोल/हैलाकांडी/दीमापुर: असम की हिमंता बिस्वा शर्मा सरकार ने बीते एक सितंबर को राज्य के सबसे पुराने वन अभयारण्य राजीव गांधी ओरंग राष्ट्रीय उद्यान का नाम बदलकर ओरंग राष्ट्रीय उद्यान कर दिया है.

केंद्र द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम खेल रत्न पुरस्कार से हटाने के कुछ हफ्तों बाद यह घटनाक्रम सामने आया है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से जारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि आदिवासी और चाय जनजाति समुदाय की मांगों पर संज्ञान लेने के बाद राज्य मंत्रिमंडल ने यह फैसला लिया.

असम सरकार के प्रवक्ता और सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री मंत्री पीयूष हजारिका ने बैठक के बाद मीडिया को संबोधित करते हुए कहा, ‘मुख्यमंत्री ने हाल ही में चाय जनजाति और आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधियों से मुलाकात की, जिन्होंने आग्रह किया कि हम पार्क के वास्तिवक नाम को बहाल करें.’

ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर स्थित ओरंग राष्ट्रीय उद्यान गुवाहाटी से 140 किलोमीटर दूर स्थित है. यह उद्यान 78.80 वर्ग किमी में फैला राज्य का सबसे पुराना वन अभयारण्य है.

राष्ट्रीय उद्यान का नाम उरांव लोगों के नाम पर रखा गया है, जो झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के निवासी हैं. उनमें से हजारों उन राज्यों की कई जनजातियों का हिस्सा थे, जिन्हें अंग्रेजों द्वारा असम के चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया था.

उरांव जनजाति के बहुत से लोग उस क्षेत्र के पास में बसे थे, जहां अब पार्क स्थित है. जिसके बाद इस पार्क का नाम ओरंग पड़ा था. 2011 की जनगणना के अनुसार, असम में 73,437 उरांव लोग हैं.

यह उद्यान एक सींग वाले गैंडे, बाघ, हाथी, जंगली सुअर, पिग्मी हॉग और मछलियों की विभिन्न प्रजातियों के लिए जाना जाता है. इसे आमतौर पर मिनी काजीरंगा भी कहा जाता है.

असम के वन मंत्री परिमल शुक्लाबैद्य ने कहा कि राष्ट्रीय उद्यान के आसपास रह रहे स्थानीय समुदायों की पार्क का नाम बदलने की मांग लंबे समय से रही है.

उन्होंने बताया कि इस पार्क का नाम पहले ओरंग राष्ट्रीय पार्क ही था, लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने इसके नाम में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम भी शामिल कर दिया इसलिए हमने सिर्फ वास्तविक नाम को बहाल कर स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान किया है.

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए असम से कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने ट्वीट कर कहा, ‘जब असम में कांग्रेस की अगली सरकार बनेगी तो हम पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम ओरंग राष्ट्रीय उद्यान से हटाने के भाजपा सरकार के फैसले को रद्द करेंगे. भारतीय संस्कृति हमें शहीदों का सम्मान करना सिखाती है.’

कांग्रेस नेता और राज्यसभा सदस्य रिपुन बोरा ने राजीव गांधी राष्ट्रीय उद्यान का नाम बदलने के असम सरकार के कदम को राजनीतिक प्रतिशोध की कार्रवाई करार देते हुए कहा कि इसका नाम फिर से पूर्व प्रधानमंत्री के नाम पर रखा जाना चाहिए.

असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा को लिखे पत्र में बोरा ने कहा, ‘इतिहास पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सदैव याद रखेगा जिन्होंने भारत की एकता और अखंडता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए.’

उनके मुताबिक, असम की जनता भी राजीव गांधी को 1985 के ऐतिहासिक असम समझौते के लिए याद रखेगी.

बोरा ने कहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया के कार्यकाल के दौरान असम की सरकार ने ओरंग राष्ट्रीय उद्यान का नाम राजीव गांधी के नाम पर करने का फैसला किया था और यह एक महान नेता के प्रति सम्मान में किया गया था.

उन्होंने कहा कि इस उद्यान का नाम राजीव गांधी के नाम पर करने के बाद से इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली.

बोरा ने कहा कि यह कदम राजनीतिक प्रतिशोध में उठाया गया है और उद्यान का नाम फिर से राजीव गांधी राष्ट्रीय उद्यान किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘असम सरकार के इस फैसले से राज्य की जनता को गहरी पीड़ा हुई है. उद्यान का नाम बदलने से असम के विकास में कोई फायदा नहीं होगा बल्कि इससे, देश के लिए अपनी जान देने वाले एक महान नेता के प्रति असम्मान जाहिर होता है.’

मंगलदाई वन्यजीव प्रभाग के शोधकर्ता और पूर्व मानद वन्यजीव वॉर्ड डॉ. बुधिन हजारिका ने कहा, ‘1990 के दशक से कई जनजातियां ओरंग क्षेत्र में रह रही हैं, लेकिन काला ज्वर फैलने के बाद ये जनजातियां यहां से चली गई थीं. 1915 में ब्रिटिश शासकों ने इसे गेम रिजर्व के तौर पर अधिसूचित किया था, बाद में 1985 में इसे वन्यजीव अभयारण्य घोषित कर दिया था.’

उन्होंने कहा, ‘1999 में इसे राष्ट्रीय उद्यान के तौर पर अपग्रेड कर दिया था और 2016 में इसे टाइगर रिजर्व के तौर पर मान्यता दी गई थी.’

हजारिका के मुताबिक, ‘राष्ट्रीय उद्यान के नाम को लेकर विवाद 1992 में ही शुरू हो गया था, जब हितेश्वर सैकिया की अगुवाई में कांग्रेस सरकार ने इसका नाम ओरंग वन्यजीव अभयारण्य से बदलकर राजीव गांधी वन्यजीव अभयारण्य कर दिया था.’

उन्होंने कहा, ‘इसका स्थानीय समुदाय के साथ-साथ नागरिक समाज संगठनों ने भी विरोध किया था. यह एक ऐतिहासिक क्षेत्र है, जिसका ऐतिहासिक नाम है, जो यहां की स्थानीय भावनाओं से जुड़ा हुआ है इसलिए इसका विरोध हुआ.’

हजारिका ने कहा कि साल 1999 में जब राष्ट्रीय उद्यान को अपग्रेड किया गया तो कांग्रेस ने कहा कि वह ओरंग नाम को बनाए रखेगा लेकिन इसमें राजीव गांधी जोड़ दिया. इस तरह यह राजीव गांधी ओरंग राष्ट्रीय पार्क बना.

मालूम हो कि इससे पहले बीते छह अगस्त को केंद्र सरकार ने भारत के सर्वोच्च खेल सम्मान खेल रत्न पुरस्कार का नाम राजीव गांधी खेल रत्न से बदलकर मेजर ध्यानचंद खेल रत्न कर दिया था.

असम सरकार और केंद्र के साथ राज्य के पांच उग्रवादी समूहों ने शांति समझौते पर दस्तखत किए

कार्बी आंगलोंग क्षेत्र में वर्षों से चल रही हिंसा को समाप्त करने के लिए शनिवार को असम सरकार, केंद्र और राज्य के पांच उग्रवादी समूहों के बीच एक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए.

इस अवसर पर मौजूद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि समझौते से कार्बी आंगलोंग में स्थायी शांति और सर्वांगीण विकास होगा.

शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले उग्रवादी समूहों में केएएसी, कार्बी लोंगरी नॉर्थ कछार हिल्स लिबरेशन फ्रंट, पीपुल्स डेमोक्रेटिक काउंसिल ऑफ कार्बी लोंगरी, यूनाइटेड पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, कार्बी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर्स शामिल हैं.

इस समझौते के फलस्‍वरूप इन समूहों से जुड़े करीब 1000 उग्रवादियों ने अपने हथियारों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया है और समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं.

केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा कि कार्बी समझौता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उग्रवाद मुक्त समृद्ध पूर्वोत्तर के दृष्टिकोण में एक और मील का पत्थर साबित होगा.

शाह ने कहा कि कार्बी क्षेत्र में विशेष विकास परियोजनाओं को शुरू करने के लिए केंद्र सरकार और असम सरकार द्वारा पांच वर्षों में 1,000 करोड़ रुपये का एक विशेष विकास पैकेज दिया जाएगा.

उन्होंने कहा, ‘मैं सभी को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हम इस समझौते को समयबद्ध तरीके से लागू करेंगे. केंद्र और राज्य सरकारें कार्बी आंगलोंग के सर्वांगीण विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं और क्षेत्र में शांति कायम होगी.’

केंद्रीय गृह मंत्री ने पूर्वोत्तर के अन्य उग्रवादी समूहों एनडीएफबी, एनएलएफटी और ब्रू समूहों के साथ पूर्व में हस्ताक्षरित इसी तरह के शांति समझौते का उदाहरण देते हुए कहा, ‘हम समझौतों की सभी शर्तों को अपने ही कार्यकाल में पूरा करते हैं और इन्हें पूरा करने का सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है.’

शाह ने कहा कि जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से वह पूर्वोत्तर पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और इसके साथ ही पूर्वोत्तर का सर्वांगीण विकास और वहां शांति और समृद्धि सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है.

शाह ने कहा, ‘मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की नीति है कि जो हथियार छोड़कर मुख्यधारा में आते हैं, उनके साथ हम और अधिक विनम्रता से बात करके और जो वो मांगते हैं, उससे अधिक देते हैं.’

यह समझौता महत्वपूर्ण है क्योंकि कार्बी आंगलोंग में वर्षों से उग्रवादी समूह अलग क्षेत्र की मांग को लेकर हिंसा, हत्याएं और अगवा करने जैसी घटनाओं को अंजाम देते रहे हैं.

इस अवसर पर उपस्थित केंद्रीय मंत्री और असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने असम और पूर्वोत्तर में शांति लाने के लिए प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के प्रयासों की सराहना की.

असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने कहा कि यह एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि इन पांचों समूहों के उग्रवादी अब मुख्य धारा में शामिल होंगे और कार्बी आंगलोंग के विकास के लिए काम करेंगे.

यह समझौता असम की क्षेत्रीय और प्रशासनिक अखंडता को प्रभावित किए बिना, कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद (केएसीसी) को और अधिक स्वायत्तता का हस्तांतरण, कार्बी लोगों की पहचान, भाषा, संस्कृति की सुरक्षा और परिषद क्षेत्र में सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करेगा.

कार्बी सशस्त्र समूह हिंसा को त्यागने और देश के कानून द्वारा स्थापित शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने के लिए सहमत हुए हैं. समझौते में सशस्त्र समूहों के कैडरों के पुनर्वास का भी प्रावधान है.

मिज़ोरम: असम पर मिज़ो मजदूर के अपहरण का आरोप, श्रमिकों ने दोनों राज्यों से मुआवज़ा मांगा 

असम पुलिस द्वारा कथित रूप से एक मजदूर का अपहरण और उसकी पिटाई किए जाने के एक दिन बाद शुक्रवार को कोलासिब के एक श्रमिक संगठन ने मांग की कि दोनों ही राज्यों को श्रमिक को मुआवजा देना चाहिए.

वहीं, असम पुलिस ने मिजोरम के इस आरोप का खंडन किया कि हैलाकांडी जिला पुलिस ने निर्माण मजदूर का अपहरण कर उसके साथ मारपीट की थी.

हैलाकांडी के पुलिस अधीक्षक गौरव उपाध्याय ने कहा कि मिजोरम ने असम पुलिस के खिलाफ झूठे एवं मनगढ़ंत आरोप लगाए हैं.

मिजोरम के कोलासिब के उपायुक्त एच. ललथांगलियाना ने असम के जिले के अपने समकक्ष को लिखे पत्र में कहा कि मिजोरम में वैरांगते गांव से कुछ किलोमीटर दूर ऐटलांग इलाके से असम पुलिसकर्मियों ने ललनाराम्माविया नामक एक मजदूर की आंख पर पट्टी बांधी और उसे अगवा कर लिया.

उपाध्याय ने कहा कि मजदूर के शरीर पर चोट का कोई निशान नहीं है और शायद ये आरोप मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए लगाए गए हैं.

‘कोलासिब एक्सकैवेटर बाखो लोडर ऑपरेटर एसोसिएशन’ ने अपने सदस्य पर कथित हमले पर रोष जताया और इसके लिए मिजोरम सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि पीड़ित व्यक्ति की स्थिति गंभीर है और उसकी हड्डियां टूट गई हैं.

एसोसिएशन ने कहा कि हमारी मांग है कि असम सरकार हमले को लेकर पीड़ित को मुआवजा दे. हम मिजोरम से भी मांग करते हैं कि वह सुरक्षा प्रदान न कर पाने को लेकर उसे मुआवाज दे.

म्यांमार शरणार्थियों के बच्चों को स्कूलों में दाख़िला देगी मिजोरम सरकार 

मिज़ोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा. (फोटो साभार: यूट्यूब)

मिजोरम सरकार ने 31 अगस्त के अपने पत्र में राज्य के शिक्षा अधिकारियों को म्यांमार शरणार्थियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में प्रवेश देने का निर्देश दिया है.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, मिजोरम सरकार ने म्यांमार शरणार्थियों के बच्चों की स्कूली शिक्षा जारी रखने के लिए यह फैसला लिया है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस पत्र पर मिजोरम के स्कूल शिक्षा निदेशालय के निदेशक जेम्स लालरिंचना के हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 (आरटीई एक्ट) का हवाला देते हुए कहा कि वंचित समुदायों के छह से 14 साल के बच्चों को अपनी प्राथमिक स्कूली शिक्षा पूरी करने के लिए अपनी उम्र के अनुरूप उपयुक्त कक्षा में दाखिला लेने का अधिकार है.

यह पत्र सभी जिला शिक्षा अधिकारियों और सब डिविजनल शिक्षा अधिकारियों को भेजा गया है, जिसमें उनसे उनके अधिकार क्षेत्रों के तहत आने वाले स्कूलों में इन प्रवासी और शरणार्थी बच्चों को दाखिला देने का आग्रह किया गया है.

हालांकि, पत्र में म्यांमार के नागरिकों का विशेष तौर पर उल्लेख नहीं किया गया है.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, स्कूली शिक्षा मंत्री लालचंदमा राल्ते ने बताया कि यह सर्कुलर व्यापक तौर पर इस साल मार्च महीने में म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद मिजोरम भागने के लिए मजबूर हुए बच्चों के लिए है.

उन्होंने कहा कि इन बच्चों का सितंबर में सरकारी स्कूलों में दाखिला कराया जाएगा.

लालरिंचना ने कहा कि यह आदेश किसी भी देश के प्रवासी बच्चे पर लागू होता है. जब तक वे भारतीय जमीन पर हैं, उनकी देखभाल करना हमारी जिम्मेदारी है. उन्हें शिक्षा से वंचित नहीं रख सकते, जो उनके विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक म्यांमार से मिजोरम आए शरणार्थियों की संख्या 9,450 है. ये लोग मिजोरम के दस जिलों में हैं. म्यांमार से सटे मिजोरम चंपई जिले की सीमा पर सबसे अधिक 4,488 शरणार्थी हैं. इसके बाद राजधानी आइजोल में 1,622 शरणार्थी हैं.

ये शरणार्थी अधिकतर म्यांमार के चिन प्रांत से हैं और इस साल फरवरी में म्यांमार में सैन्य जुंटा के तख्तापलट के बाद इन्हें भागने को मजबूर होना पड़ा था. इस तख्तापलट में आंग सान सू की निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंका गया और कई नेताओं को नजरबंद किया गया.

नगालैंड: छात्र संगठन ने राज्यपाल पर लगाया नगा इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप

नगा शांति वार्ता में वार्ताकार और नगालैंड के राज्यपाल आरएन रवि. (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

नगा स्टूडेंट्स फेडरेशन (एनएसएफ) ने नगालैंड के राज्यपाल आरएन रवि और नगा वार्ता के लिए केंद्र के वार्ताकार पर नगाओं के ऐतिहासिक सत्य को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप लगाया है.

नॉर्थईस्ट नाउ की रिपोर्ट के मुताबिक, एनएसएफ ने राज्यपाल आरएन रवि के स्वतंत्रता दिवस के संदेश का उल्लेख करते हुए कहा, ‘जब ब्रिटिश शासकों ने भारत के विभाजन की साजिश रची और पूर्वोत्तर भारत को पाकिस्तान को दे दिया तो नगा हिल्स के नेताओं ने बाकी देश के साथ एकजुटता दिखाते हुए औपनिवेशिक साजिश को असफल कर दिया.’

एनएसएफ ने बयान जारी कर कहा, ‘नगा नेताओं ने भारत के संवैधानिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’

छात्र संगठन ने कहा कि नगा पीपुल्स कन्वेंशन का लगातार महिमंडन करना और 16 सूत्रीय मांगों का चार्टर नगा युवाओं और छात्रों के लिए चिंता का एक और बड़ा मामला है.

एनएसएफ ने कहा कि नगा युवा और छात्र राज्यपाल आरएन रवि के बयानों से तंग आ चुके हैं, जिनकी मंशा नगा लोगों को विभाजित करने की है.

संगठन ने कहा कि राज्यपाल के दावों से नगा इतिहास को लेकर उनकी खोखली समझ का ही पता चलता है.

बयान में कहा गया, ‘संगठन का कहना है कि राजनीतिक विचार-विमर्श में भारत की ओर से इस तरह की विभाजनकारी सोच से मौजूदा शांति प्रक्रिया संदेहजनक हो जाती है.’

बयान में कहा गया, ‘नगा लोगों ने 14 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता की घोषणा की थी और 1951 में नगा राष्ट्रीय जनमत संग्रह के जरिए इसकी पुष्टि की गई.’

कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों की नगा शांति प्रक्रिया के लिए नए वार्ताकार की मांग

दिल्ली में शनिवार को नगा पीपुल्स मूवमेंट फॉर ह्यूमन राइट्स (एनपीएमएचआर) द्वारा आयोजित कॉन्फ्रेंस में शामिल सांसदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों ने नगा शांति वार्ता के लिए नए वार्ताकार को नियुक्त करने की मांग की.

न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, नगा शांति वार्ता के लिए नगालैंड के राज्यपाल आरएन रवि मौजूदा वार्ताकार हैं लेकिन राज्यपाल और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन-आईएम) के बीच विश्वास की कमी की वजह से शांति प्रक्रिया के अचानक पटरी से उतरने को लेकर निराशा जताई.

इस दौरान कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने कहा कि दोनों पक्षों के बीच वार्ताकार का होना जरूरी है. शांति बहाल करने के लिए एक वार्ताकार को नियुक्त करना जरूरी है, जो दोनों पक्षों के बीच दोबारा विश्वास बहाल कर सके.

इस कॉन्फ्रेंस में राज्यसभा सांसद वाइको ने शांति प्रक्रिया बहाल करने का आह्वान किया.

एनपीएमएचआर ने उनके हवाले से जारी बयान में कहा, ‘तीन अगस्त 2015 को इस ऐतिहासिक फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है लेकिन पांच साल हो चुके हैं लेकिन यह अभी भी ठंडे बस्ते में पड़ा है.’

इससे पहले 2020 में भी वार्ताकार बदलने की मांग उठ चुकी है. तब नगा संगठनों के प्रतिनिधि एनएससीएन-आईएम ने कहा था कि वे इस प्रक्रिया में बाधा पैदा कर रहे हैं, इसलिए वार्ता आगे बढ़ाने के लिए नया वार्ताकार नियुक्त किया जाना चाहिए.

तब संगठन की ओर से जारी बयान कहा गया कि नगा मुद्दों पर रवि के तीखे हमलों की बदौलत शांति समझौते की प्रक्रिया तनावपूर्ण स्थिति में पहुंच गई है.

गौरतलब है कि उत्तर पूर्व के सभी उग्रवादी संगठनों का अगुवा माने जाने वाला एनएससीएन-आईएम अनाधिकारिक तौर पर सरकार से साल 1994 से शांति प्रक्रिया को लेकर बात कर रहा है.

सरकार और संगठन के बीच औपचारिक वार्ता वर्ष 1997 से शुरू हुई. नई दिल्ली और नगालैंड में बातचीत शुरू होने से पहले दुनिया के अलग-अलग देशों में दोनों के बीच बैठकें हुई थीं.

18 साल चली 80 दौर की बातचीत के बाद अगस्त 2015 में भारत सरकार ने एनएससीएन-आईएम के साथ अंतिम समाधान की तलाश के लिए रूपरेखा समझौते (फ्रेमवर्क एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर किए गए.

एनएससीएन-आईएम के महासचिव थुलिंगलेंग मुइवा और वार्ताकार (अब नगालैंड के राज्यपाल) आरएन रवि ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में तीन अगस्त, 2015 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे.

चार साल पहले केंद्र ने एक समझौते (डीड ऑफ कमिटमेंट) पर हस्ताक्षर कर आधिकारिक रूप से छह नगा राष्ट्रीय राजनीतिक समूहों (एनएनपीजी) के साथ बातचीत का दायरा बढ़ाया था.

अक्टूबर 2019 में आधिकारिक तौर पर इन समूहों के साथ हो रही शांति वार्ता खत्म हो चुकी है, लेकिन नगालैंड के दशकों पुराने सियासी संकट के लिए हुए अंतिम समझौते का आना अभी बाकी है.

उल्लेखनीय है कि एनएससीएन-आईएम ने समझौते पर हस्ताक्षर के आधार पर अलग झंडे और संविधान की मांग की थी, लेकिन रवि ने अक्टूबर 2019 में इसे ख़ारिज कर दिया था.

बीते साल अगस्त में आरएन रवि और एनएससीएन-आईएम के बीच तनाव काफी बढ़ गया था, जिसके बाद इस संगठन ने 2015 में सरकार के साथ हुए फ्रेमवर्क एग्रीमेंट की प्रति सार्वजनिक करते हुए कहा था कि आरएन रवि नगा राजनीतिक मसले को संवैधानिक क़ानून-व्यवस्था की समस्या का रंग दे रहे हैं.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)