औरत का मुसलमान होना भी औरत होने की तरह ही ख़तरनाक है…

04:46 PM Feb 15, 2019 | फ़ैयाज़ अहमद वजीह

औरत सिर्फ़ औरत हो तो शायद उसके हिस्से का अज़ाब कट जाए, लेकिन वो औरत के साथ मुसलमान भी हो तो अपने अज़ाब के साथ कटती ही नहीं, मरती है और मरती रहती है.

प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई

आप स्त्रीवादी विद्वान हैं. नारीवाद पर ज़ोर देते हैं. औरतों की आज़ादी की बात करते हैं और समाज को बड़े सरल स्वाभाव से औरत-मर्द की ऐनक से देखते हैं तो शायद आप इस समाज को नहीं जानते. उस समाज को जिस में धर्म की अपनी सत्ता है, ऐसी सत्ता जो पितृसत्ता से अलग नहीं है.

हमारे मुल्क में औरत होना सिर्फ़ औरत होना नहीं है, हिंदू और मुसलमान होना भी है. साफ़-साफ़ कहूं तो औरत का मुसलमान होना भी औरत होने की तरह ही ख़तरनाक है. औरत सिर्फ़ औरत हो तो शायद उसके हिस्से का अज़ाब कट जाए, लेकिन वो औरत के साथ मुसलमान भी हो तो अपने अज़ाब के साथ कटती ही नहीं, मरती है और मरती रहती है.

ये इस सदी की सच्चाई है, जिसमें कनीज़ और ख़ादिमा जैसे शब्दों के संबोधन के बिना भी हमारा समाज औरतों के साथ ‘व्यवहार’ करना सीख गया है. इस व्यवहार का नमूना उर्दू के विख्यात कथाकार राशिदुल ख़ैरी के यहां नज़र आता है.

कमाल की बात ये है कि ख़ैरी को स्त्रीवादी लेखक के तौर पर क़ुबूल किया गया और आज भी उनको इस अध्ययन से अलग करके नहीं देखा जाता. वो अपनी पत्रिका और पुस्तक आलम-ए-निस्वां अर्थात औरतों की दुनिया में लिखते हैं कि;

‘कुंवारी लड़कियां मां-बाप के पास शौहरों की अमानत हैं…हम पहले उनको मुसलमान बीवी, मुसलमान बेटी और मुसलमान घरवाली देखना चाहते हैं उसके बाद शैदा-ए-क़ौम अर्थात क़ौम से मोहब्बत करने वाली,सक्षम और प्रभावशाली वक्ता एवं लाएक़ मुहर्रिर अर्थात क्लर्क/लेखिका…निसाब-ए-तालीम (पाठ्यक्रम) में मज़हब रुक्न-ए-अव्वल (पहला स्तम्भ) हो.’

ये हमारे समाज के विचारों का वो सांचा है, जिसका प्रतिनिधित्व अकेले ख़ैरी नहीं करते. उर्दू में ख़ैरी जैसों की लेखनी की भरमार है. यहां ये बताना शायद फायदेमंद हो कि ख़ैरी उर्दू के उन कथाकारों की श्रेणी में आते हैं जिन्होंने उर्दू में पहले-पहल कहानी की बुनियाद रखी.

इस तरह देखें तो उर्दू शायरी की परंपरा में वो औरत नज़र आएगी जो मर्दों की ग़ज़ल बन जाती है, और दूसरी तरफ वो औरत मौजूद है जो हर लिखने वाले के लिए मुसलमान है. अब इस मुसलमान औरत को ख़ैरी के अंदाज़ में ही पढ़ाया जा सकता है कि,

इस्लाम में बीवी की हर उस कोशिश को जो शौहर का दिल मुसख़्ख़र करने के वास्ते (विजय प्राप्ति या दिल मोह लेने के लिए) की जाए क़रीब-क़रीब जायज़ है, मौसिक़ी  का शुमार भी इसी सिलसिले में है और मैं समझता हूं कि अगर ये चीज़ें इस मकसद से की जाएं तो क़ाबिल-ए-एतराज़ नहीं.

यही है वो व्यवहार जिसके तहत औरतों को आइटम गर्ल तक बना लेने में क़रीब-क़रीब जायज़ होने वाली बात कही जा रही है. शायद आपको याद हो कि एक पाकिस्तानी फ़िल्म ख़ुदा के लिए  में भी जब मौसीक़ी/संगीत को क़रीब-क़रीब जायज़ बतलाना था तो पैग़म्बर दाऊद का हवाला देकर गाने-बजाने को सही ठहराया गया था.

ठीक उसी तरह जब यहां औरतों से दिल बहलाने की बात आई तो कई हवाले तलाश कर लिए ख़ैरी ने. ख़ैरी ने इन हवालों के साथ औरतों को नाचने तक की आज़ादी दे दी, केवल ये शर्त लगा दी कि अपने मियां के लिए नाचो. इससे अलग अगर कोई मुस्लिम बच्ची गाना चाहती है तो बातें होने लगती है, ख़बरें छप जाती हैं, मिर्ज़ा ग़ालिब के लफ़्ज़ों में कहें तो,

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

जी बिना तलवार के क़त्ल करने वाले समाज में औरतों की आज़ादी का मतलब है, मियां के सामने बच्चे को स्तनपान कराना. वर्ना आप बे-हया हैं, आवारा हैं, कुल्टा हैं. यहां समझने की बात ये है कि आपके हिसाब से, आपके मज़हब के अनुसार एक चीज़ जो ग़लत है, हराम है, वही चीज़ मियां के पहलू में क़रीब-क़रीब जायज़ कैसे है?

मतलब शौहर की रज़ा सब कुछ है, अपनी ख़ुशी पर चूल्हे का धुंआ. आप मर्द हैं तो दो-चार शादी भी ठीक है, और औरत मज़हब की, समाज की और दोनों को मिलाकर कहें तो मर्दों की बांदी है.

उर्दू साहित्य में राशिदुल ख़ैरी को कई नामों और उपनामों से याद किया जाता है,जिसमें उनको ख़वातीन-ए-हिंद का मोहसिन-ए-आज़म अर्थात भारतीय नारी का सबसे बड़ा परोपकारी और आज की शब्दावली में कहें तो नारी सशक्तिकरण का ब्रांड एंबेसडर भी लिखा जाता है.

ये उन्हीं मानों में ब्रांड एंबेसडर हैं जिन अर्थों में एक ख़ास ज़माने का साहित्य कठमुल्लाओं के विचार से ओत-प्रोत नज़र आता है. इसका मतलब ये नहीं है कि कठमुल्लाओं का साहित्य अब नहीं लिखा जा रहा या इनके विचारों को गले नहीं लगाया जा रहा.

मैं शायद इस उदाहारण से अपनी बात स्पष्ट कर पाऊं कि आज भी हम अपने घरों में ये कहते नज़र आते हैं कि बेटी-लड़की है ज़रा तमीज़ और तहज़ीब से रहे तो अच्छा होगा. ये जो तमीज़ और तहज़ीब है इसी साहित्य की व्याख्या है.

प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई

कल्पना कीजिए कि इस तरह के लोगों को जिस समाज में औरतों का मोहसिन-ए-आज़म कहा गया, वो समाज कैसा रहा होगा ? उसी समय मन में ये विचार भी आता है कि आख़िर इनको ये उपाधि किस ने दी होगी. शर्त लगाकर कह सकता हूं कि औरतों ने नहीं दी होगी.

अगर दी होती तो ख़ैरी अपने समय की कुछ औरतों से नालां (बदगुमान) नहीं होते और उनको ये कहने की नौबत भी नहीं आती कि,

मोहतरम बीबी को मुसलमान औरत की तर्जुमानी का हक़ कहां से हासिल हुआ?

यही बात ख़ैरी से भी पूछी जा सकती थी, लेकिन इस सवाल के साथ वो ये भी कहते हैं कि,

अगर वो बजाय ग़ैर-मुस्लिम बहनों के हमनवा होने के एक मुसलमान की हैसियत से ये फ़रमा देतीं कि मुसलमान औरत जिसको उसके मज़हब ने घर की मलिका बना दिया था और मर्द ने कनीज़ बना दिया तो यक़ीनन वो अपनी तक़रीर में ज़्यादा कामयाब होतीं और उन ख़ास लम्हात में शायद नहीं लेकिन उसके बाद मुसलमान तहसीन-ओ-मर्हबा के नारों से उनके अल्फ़ाज़ सर आंखों पर रखते.

ये बातें ख़ैरी ने लाहौर की लिटरेरी लीग में औरत पर बहस के शीर्षक से क़लम-बंद की हैं. यहां अपनी क़ौम या एक मुस्लिम औरत के विचारों से बदगुमान हो कर कुछ लिख देने का मामला भर नहीं है.

ख़ैरी ने साफ़ तौर पर ग़ैर-मुस्लिम औरतों को बदकार यानी बुरा कह दिया है. ये बात तो बहुत स्पष्ट  है कि वो मज़हब की पनाह में मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम औरतों में फ़र्क़ करते हैं. ऐब फ़र्क़ करने में नहीं फ़र्क़ करने के तरीक़े में है.

वो बार-बार आलम-ए-निस्वां के अलग-अलग लेखों में औरतों पर अपने विचार रखते हैं. औरतों की कुछ ख़ास गोष्ठियों का मूल्यांकन करते हैं और हर बार इस्लाम में औरतों की बराबरी का गुणगान करते नज़र आते हैं.

इन सब के बीच वो अपनी क़रीब-क़रीब जायज़ होने वाली बातों के लिए संदर्भ भी तलाश कर लेते हैं. साहित्य की इस होशियारी और चतुराई में मुस्लिम समाज आज भी फंसा हुआ है.

शायद इसलिए ख़ैरी की तरह आम तौर से घरों में मुस्लिम लड़कियों से ये कहा जाता है कि,

मुसलमान औरत का ग़ैर-मुस्लिम औरत से हमनवा होना उसके वास्ते कुछ मुफ़ीद नज़र नहीं आता.

ख़ैरी की तरह मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा यही सोचता है कि उनकी औरतें हर हाल में मुसलमान रहें, हर हाल में मुसलमान होने का मतलब है पांव दबाए, चूल्हा फूंके और क़रीब-क़रीब जायज़ होने वाली चीज़ें भी कर ले. इससे अलग अगर वो औरत की तरह सोचने लग जाती है तो ग़ैर-मुस्लिम औरतों की हमनवा हो जाती है.

इस हमनवाई का मतलब क्या है? ज़ाहिर है कि पाठ्यक्रम में मज़हब पहला स्तम्भ हो न हो शिक्षा का महत्व ज़रूर होगा. पहनावे में पर्दा हो न हो पहनने-ओढ़ने की आज़ादी ज़रूर होगी और यही जो पढ़ने और पहनने की आज़ादी का बदलता स्वरुप है वो ख़ैरी के समाज में क़रीब-क़रीब भी जायज़ नहीं है.

प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई

ख़ैरी की कथा-कहानी जिसमें वो पात्रों के नाम को रूपक बनाकर उनके चरित्र का आदर्श गढ़ते हैं, उस से ज़्यादा आलम-ए-निस्वां वाली लेखनी मुझे उनकी मक्कारी ज़्यादा दिलचस्प लगती है कि इसमें समाज की होशियारी का आख्यान प्रचुर मात्र में मौजूद है.

इसी में एक जगह ख़ैरी ने एक ख़ास गोष्ठी की चर्चा करते हुए किसी प्रोफ़ेसर का कथन प्रस्तुत किया है कि पहले औरत की मोहब्बत का मर्कज़ उसका शौहर और बच्चे थे अब कुत्ते हैं और कुत्तों के पिल्ले.

प्रोफ़ेसर के कहे पर ख़ैरी मुस्लिम औरतों को आगे करते हुए कहते हैं कि ऐसा वक़्त आ भी नहीं सकता कि मुसलमान औरत की रगों में ख़दीजा और फ़ातिमा (पैग़म्बर की पत्नी और बेटी) का खून दौड़ रहा है. ये उसका नाम रटने वाली है. 

यहां दिक्क़त ये है कि आप बड़ी सादगी से औरत को मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम बना देते है, बिना ये सोचे हुए कि किसी कुत्ते या उसके पिल्ले से प्रेम करना किसी औरत की अपनी पसंद हो सकती है. और फिर हर बात में मज़हब क्यों? मज़हब को मानने न मानने की आज़ादी भी औरत की अपनी मर्ज़ी का सवाल क्यों नहीं हो सकता.

मुस्लिम औरतों की ग़ैर-मुस्लिम औरतों से हमनवाई से दुखी ख़ैरी ने एक ज़माने में मुस्लिम लेडीज़ कांफ्रेंस पर अपनी ख़ुशी का ख़ूब इज़हार किया और उसके सचिव की इस बात के लिए भी सराहना की कि अच्छा हुआ मोहतरम बीवी ने जिस मकान में जलसा हुआ था उसमें मर्द झांक सकते थे इसलिए मकान तब्दील कर दिया.

औरतों को मकानों में बंद कर देने वाले इस समाज में ख़ैरी के विचार टिक नहीं पाए इसलिए उसी मुस्लिम लेडीज़ कांफ्रेंस के बारे में उनको लिखना पड़ा कि

कहीं ज़ेवर और लिबास का ग़म है कहीं कसरत-ए-इज़दिवाज (एक से ज़्यादा विवाह) की मुखालिफ़त और कहीं तू तू मैं मैं, ख़ुदा हमारी हालतों पर रहम करे, हमें उम्मीद है कि जिन मुबारक हाथों ने मुस्लिम लेडीज कांफ्रेंस के बीज बोए वो देख रहे होंगे कि उनके बीजों ने क्या क्या गुल खिलाए.

दरअसल यहां औरतों की तू तू मैं मैं और उनके गुल खिलाने में जिस तरह से औरतों की आज़ादी को एक मानी देने की कोशिश की गई है उसके पीछे का सच वही है जिसके लिए वो ख़ुदा से दुआ मांग रहे हैं. इनकी हालत ग़ैर भी इसलिए हो रही है कि अब इस समाज की औरतों ने भी बहुत हद तक अपने आंचल को परचम बनाना शुरू कर दिया है.

इसी बात को यूंं भी कह सकते हैं कि योनि में जलती हुई सिगरेट बुझाने वाला मर्दवादी समाज हर समय मौजूद था. ऐसे में ‘स्त्रीवाद’ के प्रति बढ़ती जागरूकता, शिक्षण और सामाजिक स्थलों पर औरतों की उपस्थिति को हम मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम औरतों से अलग औरतों की हमनवाई का नाम ज़रूर देंगे कि वो इस घिनौने समाज में ऐशट्रे नहीं बनना चाहती हैं.

शायद इसलिए वे तीन तलाक़ पर आगे आ रही हैं और बोल रही हैं तो ये स्त्रीवादी समाज की एक जीत हो न हो औरतों के अपने अधिकार की सम्मान की जीत ज़रूर है.

इसलिए कहना चाहिए कि औरतों की तालीम को अपनी-अपनी ऐनक से देखने वाले मिर्ज़ा ग़ालिब, अकबर इलाहाबादी और सर सैयद जैसे महिला विरोधी विचार से निकलकर आने वाले मुस्लिम समाज में भले ही औरतों की शिक्षा दूसरे भारतीय समाज की तरह बहुत शानदार न हो लेकिन सूरत-ए-हाल की बेहतरी में दो चार क़दम का सार्थक सफ़र ज़रूर तय हुआ है.

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