जम्मू कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर जारी ‘द फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर’ की रिपोर्ट में अगस्त 2021 से जुलाई 2022 के बीच हुए सूबे के उन घटनाक्रमों की बात की गई है जो मानवाधिकार उल्लंघनों की वजह बने. साथ ही, मानवाधिकारों की स्थिति में सुधार के लिए कुछ सिफ़ारिशें भी की गई हैं.
नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह और पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई के संयुक्त नेतृत्व वाले एक स्वतंत्र निकाय ‘द फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर’ ने जम्मू कश्मीर में मानवाधिकार के हालातों पर अपनी चौथी रिपोर्ट सोमवार (8 अगस्त) को जारी की. रिपोर्ट का शीर्षक ‘केंद्रशासित प्रदेश के रूप में तीन साल: जम्मू कश्मीर में मानवाधिकार’ है. यह रिपोर्ट अगस्त 2021 से जुलाई 2022 की अवधि के बीच की है.
फोरम स्वयं को ‘चिंतित नागरिकों के अनौपचारिक समूह’ के तौर पर पारिभाषित करता है. इसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मौजूदा स्थिति को देखते हुए केंद्रशासित प्रदेश में लगातार हो रहे मानवाधिकार हनन को प्रकाश में लाने के लिए एक स्वतंत्र पहल की जरूरत है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि जारी किए गए एक ईमेल एड्रेस पर मानवाधिकार उल्लंघन से संबंधित जानकारी मिलने के अलावा, सारी जानकारी सीधे स्थानीय स्तर पर, सरकारी स्रोतों से, मीडिया के हवाले से (प्रतिष्ठित समाचार पत्रों या टीवी) और एनजीओ की फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्टों से संकलित की गई है.
मुख्य निष्कर्ष
52 पन्नों की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट के साथ एक बयान में फोरम ने जम्मू कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति के संबंध में कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष पाए हैं.
सबसे पहले, इसने उल्लेख किया है कि उप-राज्यपाल शासन के तीन वर्षों में, 2019 में जब से अनुच्छेद 370 हटाया गया है और जम्मू कश्मीर के राज्य का दर्जा खत्म किया गया है, नागरिक हत्याओं में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है.
राज्य में नागरिकों के तीन समूहों को निशाना बनाए जाने पर प्रकाश डाला गया है- जो कि पंच (पंचायत सदस्य), कश्मीरी पंडित और जम्मू कश्मीर पुलिस हैं.
दूसरा, रिपोर्ट दमनकारी कानूनों के इस्तेमाल के जरिये पत्रकारों और एक्टिविस्ट के निरंतर दमन पर प्रकाश डालती है- जैसे कि राजद्रोह कानून और आतंकवाद विरोधी गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) और व्यक्तिगत सुरक्षा अधिनियम (पीएसए).
रिपोर्ट इस बारे में भी बात करती है कि कैसे इन कानूनों का इस्तेमाल पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही का ‘दुष्चक्र’ चलाने के लिए किया जाता है. इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैक्ट-चैकिंग वेबसाइट ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर को जमानत देते वक्त की गई टिप्पणी का भी जिक्र किया गया है, जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि ‘प्रक्रिया ही सजा बन गई है.’
रिपोर्ट में इसी साल की जनवरी की उस घटना की भी बात की गई है जिसमें पत्रकारों और मीडिया पेशेवरों के एक समूह ने सशस्त्र-बलों की मौजूदगी में कश्मीर प्रेस क्लब पर कब्जा कर लिया था. इस कदम की मीडिया बिरादरी ने भी आलोचना की थी. इसे क्लब के अंदर तख्तापलट और प्रेस की स्वतंत्रता को दबाने का प्रयास कहा गया था.
इसके अलावा, जम्मू कश्मीर में पत्रकारों की दुर्दशा के संबंध में रिपोर्ट कश्मीरी पत्रकारों को विदेश जाने से रोकने की भी निंदा करती है और इन घटनाओं को ‘उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन करार देती है.’
जुलाई में ही दो कश्मीरी पत्रकारों, आकाश हसन और सना इरशाद मट्टू, को आव्रजन विभाग ने अलग-अलग मौकों पर देश छोड़ने से रोक दिया था और इसके लिए उन्हें कोई कारण भी नहीं बताया गया.
Immigration officials at IGI airport New Delhi barred me from boarding a flight to Colombo, Sri Lanka. I was headed to report on the current crises in the country.
The immigration officials took my passport, boarding pass and have made me sit in a room for last four hours. pic.twitter.com/G36kx3oYQK
— Aakash Hassan (@AakashHassan) July 26, 2022
जुलाई से पहले ऐसी ही एक घटना गौहर गिलानी के साथ हुई थी.
तीसरा, रिपोर्ट में परिसीमन आयोग द्वारा की गई सिफारिशों की भी निंदा की गई है और कहा गया है कि जम्मू कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति में सुधार के लिए निर्वाचित सरकार का होना जरूरी है. इसमें कहा गया है कि आयोग की सिफारिशें ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ के सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं और चुनावी क्षेत्रों के सीमा-परिवर्तन को लेकर चिंताएं खड़ी करती हैं.
सीमा-परिवर्तन को लेकर चिंता जताते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि आयोग द्वारा कई सीटें हिंदू-मुस्लिम बहुल इलाकों को ध्यान में रखकर तैयार की गई हैं. यह सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के लिए अनुचित चुनावी लाभ पैदा करने और क्षेत्र में विपक्षी दलों को कमजोर करने के लिए है.
चौथा, रिपोर्ट में कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा का भी जिक्र है और इसके लिए माहौल बनाने में, विशेष तौर पर फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ द्वारा पैदा किए गए ध्रुवीकरण और डर के माहौल की भी चर्चा की गई है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के बाकी हिस्सों में तेजी से बढ़ते सांप्रदायिक माहौल के साथ इस तरह के भय से उग्रवादियों द्वारा जवाबी कार्रवाई का खतरा बढ़ जाता है और ‘पहले से ही कमजोर समुदाय (पंडितों) की सुरक्षा को और खतरे में डाल देता है.’
इन बिंदुओं के अलावा, रिपोर्ट में तत्कालीन राज्य में पंचायत प्रणाली के माध्यम से जमीनी स्तर पर लोकतंत्र और स्व-शासन स्थापित करने में विफलता पर भी बात की गई है. इसमें कहा गया है कि पंचायतों के सदस्यों को आतंकवादियों से सुरक्षा खतरों का सामना करना पड़ता है और साथ ही एक असहयोगी नौकरशाही उन्हें सार्थक परिवर्तन करने से रोकती है.
रिपोर्ट क्षेत्र में विकास योजनाओं की धीमी प्रगति का भी उल्लेख करती है, जैसे कि प्रधानमंत्री मोदी का कश्मीर घाटी में पंडितों के लिए रोजगार पैकेज का वादा.
सिफारिशें
मीडिया स्वतंत्रता के मुद्दे के संबंध में रिपोर्ट में जेल में बंद पत्रकारों को तत्काल रिहा करने की बात कही गई है. इस संबंध में विशेष तौर पर आसिफ सुल्तान का जिक्र किया गया है, जिन्हें अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया गया था और वे अब तक जेल में हैं.
साथ ही, अधिकारियों से बिना पुख्ता कारणों के पत्रकारों को गिरफ्तार करने से बचने का आग्रह किया है. इस संबंध में पत्रकार फहद शाह की गिरफ्तारी का संदर्भ दिया है, जिन्हें पीएसए और ‘अलगावबाद बढ़ाने’ के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.
इसमें कहा गया है कि हिरासत में लिए गए राजनीतिक नेताओं पर या तो आरोप लगाकर ट्रायल शुरू की जाए या उन्हें रिहा किया जाए.
जम्मू कश्मीर पुलिस के जवानों को निशाना बनाए जाने पर रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि आतंकवाद विरोधी अभियानों में उन्हें कम शामिल किया जाए, आतंकी गतिविधियों से निपटने के लिए विशेष सुरक्षा बलों का इस्तेमाल हो.
परिसीमन के संदर्भ में रिपोर्ट में कहा गया है कि जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा तत्काल बहाल हो और पूर्वनिर्धारित निर्वाचन क्षेत्रों के अनुसार विधानसभा चुनाव हों, साथ ही जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम-2019 को आवश्यकतानुसार संशोधित करने और परिसीमन आयोग की रिपोर्ट को रद्द करने का आह्वान किया गया है.
कश्मीरी पंडितों के हालातों पर, रिपोर्ट उनसे संबंधित प्रस्तावित सरकारी योजनाओं को लागू करने की बात कहती है, जैसे कि 6000 अतिरिक्त आवासों के निर्माण प्रस्तावित योजना ताकि समुदाय की आवास सुरक्षा को बढ़ाया जा सके.
साथ ही, कश्मीरी पंडितों को कश्मीर के भीतर ही सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने की योजना में भी तेजी लाने को कहा गया है.
इसके अलावा, रिपोर्ट में विभिन्न स्तरों पर प्रशासन और पंडित समुदाय के बीच कार्यक्रम शुरू करने की मांग की गई है ताकि दोनों के बीच एक संवाद शुरू किया जा सके और कश्मीरी पंडितों को सफलतापूर्वक मुख्यधारा में शामिल किया जा सके.
रिपोर्ट सरकार की पंचायत व्यवस्था को सशक्त बनाने की मांग करती है, इसके लिए निर्वाचित पंचायत अधिकारियों को छोटी परियोजनाओं (तीन लाख रुपये से कम की) पर अधिकार देने की बात कही गई है.
साथ ही, रिपोर्ट में सरकारी अधिकारियों और पंचायत पदाधिकारियों के बीच संवाद बढ़ाने को भी कहा गया है ताकि पंचायत अधिकारियों में स्थानीय प्रशासन के मुद्दों को समझने की समझ बढ़े.
अंत में, रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी 30,000 पंचायत पदाधिकारियों को सुरक्षा प्रदान करना संभव नहीं है, इसलिए सामुदायिक सहायता के जरिये उनकी सुरक्षा में सुधार हो.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
The post जम्मू कश्मीर में मानवाधिकारों का हनन बेरोक-टोक जारी है: रिपोर्ट appeared first on The Wire - Hindi.