जो समाज स्वतंत्र नहीं है क्या वहां का साहित्य स्वतंत्र बना रह सकता है?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वतंत्रता-संघर्ष का एक ऐसा उपक्रम है जो कभी समाप्त नहीं होता. सामान्य रूप से देखें, तो इस समय हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को कोई गंभीर ख़तरा नहीं है. ख़तरा बौद्धिक-सर्जनात्मक-वैचारिक और नागरिक स्वतंत्रता को है और हर दिन बढ़ता ही जा रहा है. The post जो समाज स्वतंत्र नहीं है क्या वहां का साहित्य स्वतंत्र बना रह सकता है? appeared first on The Wire - Hindi.

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वतंत्रता-संघर्ष का एक ऐसा उपक्रम है जो कभी समाप्त नहीं होता. सामान्य रूप से देखें, तो इस समय हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को कोई गंभीर ख़तरा नहीं है. ख़तरा बौद्धिक-सर्जनात्मक-वैचारिक और नागरिक स्वतंत्रता को है और हर दिन बढ़ता ही जा रहा है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कवि-मित्र पवन करण ग्वालियर में अपने घर पर एक मासिक गोष्ठी चलाते हैं जो इन दिनों स्वतंत्रता-संग्राम में चरितनायकों पर वक्तव्य और चर्चा पर केंद्रित होती हैं. उनके घर में इतनी जगह है कि पैंतीस-चालीस लोग आराम से बैठ जाते हैं. किसी चरितनायक पर तो नहीं इस बार ग्वालियर यात्रा के दौरान मैंने ‘स्वतंत्रता और साहित्य’ पर वहीं कुछ कहने की कोशिश की.

एक तरह से साहित्य हमेशा ही स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान और उसके बाद भी स्वतंत्रता-संघर्ष का एक चरितनायक रहा है. सच तो यह है कि स्वतंत्रता-संग्राम तो समाप्त हो जाता है पर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता: स्वतंत्रता-संघर्ष का एक ऐसा उपक्रम है जो कभी समाप्त नहीं होता.

वह हमसे लगातार चौकसी, निगरानी, चौकन्नेपन और जागरूकता की मांग करती है. हमारा समय तो रोज़ीना स्वतंत्रता में कुछ न कुछ कटौती का समय है और यह कटौती करने में सत्ता, राजनीति, धर्म, बाज़ार, मीडिया आदि अनेक शक्तियां एक साथ शामिल हैं. कई बार तो हम यह पहचान ही नहीं पाते कि कौन-सा क़ानून या किसी क़ानून के अधीन बनाया गया कौन-सा नियम या कार्रवाई, किसी संवैधानिक संस्था द्वारा चुपचाप उठाया गया कोई क़दम, कोई प्रक्रिया या योजना हमारी स्वतंत्रता को कुतर रही है. ऐसे में जिस नागरिक चौकसी की दरकार होती है वह साहित्य भी करता है.

इस बात को याद रखना ज़रूरी है कि भारतीय चिंतन और काव्यचिंतन में भी आधुनिकता और लोकतांत्रिक चेतना के उदय और प्रसार के पहले स्वतंत्रता की कोई स्पष्ट अवधारणा सक्रिय नहीं थी. श्रीकांत वर्मा ने 1973 में अपने एक निबंध में बताया था कि कैसे निजी मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा को महात्मा गांधी ने सामूहिक स्वतंत्रता की अवधारणा में बदला था.

हमारे इतिहास में यह एक क्रांतिकारी कायाकल्प है. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पारंपरिक काव्य-चिंतन में स्वतंत्रता को लेकर कोई विचार नहीं हुआ है: स्वतंत्रता हमारे कहां एक तरह से आधुनिकता, स्वतंत्रता-संग्राम और लोकतंत्र की देन है.

कई बार राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने के पहले देश सांस्कृतिक-बौद्धिक-सर्जनात्मक स्वतंत्रता प्राप्त कर चुके होते हैं. स्वयं भारत ही उसका एक बेहद उजला उदाहरण है.

राजनीतिक रूप से स्वतंत्र न रहकर भी साहित्य, ललित और रूपंकर कलाओं, चिंतन आदि में भारत के बड़े लेखक, कलाकार, रंगकर्मी, संगीतकार, नृत्यकार, चिंतक आदि औपनिवेशिक व्यवस्था में रहते हुए भी स्वतंत्रत-चेता सर्जक थे. वे गुलाम देश में गुलाम सर्जक नहीं थे.

रवींद्रनाथ ठाकुर, मोहम्मद इक़बाल, प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, अज्ञेय, वल्लतोल, काज़ी नज़रुल इस्लाम, उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां, सवाई गंधर्व, विष्णु दिगबंर पलुस्कर, नंदलाल बोस, बाल गंधर्व, तिलक, अरविंद, गांधी, नेहरू, आंबेडकर, पृथ्वीराज कपूर, बाल सरस्वती, रुक्मिणी देवी, अच्छन महाराज, सीवी रमण, जगदीश चंंद्र बसु, सत्येन बोस, आदि स्वतंत्रचेता थे इसमें कोई संदेह नहीं और उनका कलाबोध स्वतंत्रता के आत्मविश्वास से उपजा था.

यह भी एहतराम हमें आज कर सकना चाहिए कि हमारे स्वतंत्रता-संग्राम के तत्कालीन साहित्यकार और कलाकार चरितानायक भी थे, भले उन्होंने ऐसा दावा न किया हो.

सामान्य रूप से देखें, तो इस समय हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को कोई गंभीर ख़तरा नहीं है. चीन आदि देशों से कुछ तनाव और अतिक्रमण होते रहते हैं. पर विडंबना यह है कि ख़तरा बौद्धिक-सर्जनात्मक-वैचारिक और नागरिक स्वतंत्रता को है और हर दिन बढ़ता ही जाता है.

स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए स्थापित संस्थाएं जैसे न्यायालय, चुनाव आयोग, अन्य संवैधानिक संस्थाएं रक्षा के बजाय कटौती में शामिल हो रही है. आज लोकतंत्र के नाम पर बहुसंख्यकतावाद, स्वतंत्रता के नाम पर हिंसा-हत्या-बलात्कारी को खुली छूट, संविधान के नाम पर उसके बुनियादी मूल्यों और आत्मा का हनन हो रहा है. सवाल यह उठता है कि अगर नागरिक स्वतंत्रता में ऐसी कटौती आम बात हो गई तो फिर साहित्य की स्वंतत्रता कैसे बच पाएगी? देर-सबेर उस पर भी रोकथाम लगेगी ही.

ऐसे समाजों में, जहां स्वतंत्रता बाधित-खंडित-सीमित होती है, साहित्य स्वतंत्रता का पनाहगाह बन जाता है- साहित्य स्वतंत्रता का गोपनीय शरणस्थल बन जाता है. दूसरी ओर, स्वतंत्रता अकेले सुरक्षित-सक्रिय-सशक्त रह नहीं सकती- उन्हें अपने साथ दो और मूल्य समता और न्याय चाहिए: ऐसा बहुत कम हुआ है कि किसी समाज में स्वतंत्रता तो बची रहे और समता और न्याय ध्वस्त हो जाएं. वह भी ध्वस्त और बेहद क्षत-विक्षत तो हो ही जाएगी.

अगर हम इस पर कुछ विचार करें कि स्वतंत्रता का व्याकरण क्या होता है तो यह ध्यान में आएगा कि उसका वैचारिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और निजी वितान होता है और ये सभी क्षेत्र एक-दूसरे से अनिवार्यतः जुड़े होते हैं. कई बार एक वर्ग या स्तर की स्वतंत्रता दूसरे वर्ग या स्तर को परतंत्र बनाकर अर्जित की जाती है.

स्वतंत्रता एक वाक्य नहीं, कई वाक्यों का एक अंतर्गुम्फित विन्यास होती है. प्रश्नांकन, जिज्ञासा, संवाद, आत्मालोचन, आलोचना, अन्तःकरण, साझेदारी, निजी और सामाजिक कर्म, सजगता, ज़िम्मेदारी, साहस, निर्भयता आदि वे तत्व हैं जो स्वतंत्रता को सुगठित और व्यक्त करते हैं.

जैसे सत्य, वैसे ही स्वतंत्रता कभी परम नहीं होती: दोनों में बहुलता अनिवार्य है. बहुलता कई अंतर्विरोधों को जन्म देती रहती है और उन्हें दूर या समरस करना होता है. भाषा की तरह स्वतंत्रता बहता नीर है- उसे जहां भी ज़रा सी जगह या दरार मिली वह फ़ौरन घुस जाती है.

यह प्रश्न उठता है कि जो समाज स्वतंत्र नहीं है क्या वहां का साहित्य, फिर भी, स्वतंत्र बना रह सकता है? क्या किसी देश की स्वतंत्रता उसके साहित्य और कलाओं की स्वतंत्रता के बिना पूरी मानी जा सकती है?

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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